Saturday, 18 October 2025

✍️ *पुष्यमित्र शुंग यह शुंग वंशी ना होकर वो मौर्य बौध्द वंश का पुष्यमित्त मौर्य सम्राट था !*

        *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७

राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल 

एक्स व्हिजिटिंग प्रोफेसर, डॉ बी आर आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ महु मप्र 

आंतरराष्ट्रीय परिषद के संशोधन पेपर परिक्षक 

मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२


          प्राचीन भारत (जंबुद्विप) का इतिहास यह *"ब्राह्मण्यवाद मिलावटीकरण"* का इतिहास है. हमारे बहुत ही कम *संशोधक वर्ग* ने, वह सही इतिहास खोजने का प्रयास भी किया है. और उनका वह प्रयास भारत के जन मन तक पहुचने की चेष्टा करे तो भी, हमारी मानसिकता उसे सहजता से *"स्वीकार भी नहीं"* करती. इटली का हुकुमशहा *एडल्फ हिटलर* का मित्र *ग्लोबल्स* इसका तंत्र रहा कि, *"कोई भी झुट बात को, सौ बार सच बताने की चेष्टा करे तो, वह झुट सच लगने लगता है."* भारत के संदर्भ में वह तंत्र बिलकुल सही दिखाई देता है. भारत के प्राचिन इतिहास में काल्पनिक पात्र (?) *"कौटिल्य - चाणक्य / पतंजली / कालिदास"* यह बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखते है. जब कि प्राचीन जंबुद्विप के *चक्रवर्ती सम्राट अशोक शिलालेख या तत्कालिन बौध्द सम्राट शिलालेख* उनके वैज्ञानिक अस्तित्व को नकारते है. वैसा ही एक झुटा इतिहास रचा गया है - *पुष्यमित्र शुंग* नाम से, *सम्राट पुष्यमित्त मौर्य* का. मौर्य वंश का शासक *ब्रहदथ मौर्य* इसकी हत्या (?) *षुष्यमित्त मौर्य* (शासन इ.पु. १८५ - १४९ = ३६ साल तक) इसने की है या नहीं ? यह संशोधन का विषय है. वही उसका पुत्र *सम्राट अग्निमित्त मौर्य* (शासन इ. पु. १४९ - १४१) बहुत ही अल्प *"आठ साल"* रहा है. परंतु उसके बाद हुये सम्राट *आद्रक / पुलिंदक / घोष / वज्रमित्त* बाद में के *देवभुति* इनका इतिहास ही दिखाई नहीं देता. और मौर्य वंश का अस्त *इ. पु. १८५*  इस इतिहास को हम स्वीकार करते रहे है. *सम्राट पुष्यमित्त मौर्य* को समझने के लिये, हमें उस कालखंड की *"लिपी / भाषा / शिलालेख"* को समझना बहुत जरुरी है. प्राचीन भारत के इतिहास में सत्ता प्राप्ती के लिये, *"पिता - पुत्र - सगे संबधी की हत्या"* होना या *"बंदी बनाना"* यह सहज विषय था.

           महत्वपूर्ण विषय यह कि, *"बुध्द काल में ब्राह्मण थे या नहीं ?"* चक्रवर्ती *सम्राट अशोक* ( शासन इ.पु. २६८ - २३२) इनके शिलालेख में *चाणक्य - कौटिल्य* का कोई भी प्रमाण नहीं है. दुसरा प्रमाण यह कि, *सम्राट मौर्य* काल (इ.पु. तिसरी शती) में युनानी सम्राट का राजदुत *मेगास्थनिज,* यह सात साल तक मौर्य दरबार में रहा था. और मेगास्थनिज युनानी राजदुत ने, *"इंडिका"* नामक ग्रंथ की रचना की थी. उस प्राचिन ग्रंथ में *"ब्राह्मण वर्ग / वैदिक धर्म"* होने का, कोई प्रमाण दिखाई नही देता. मौर्य साम्राज्य में *"सात वर्ग"* होने का प्रमाण है. *"विद्वान वर्ग / खेतिहार वर्ग / पशुपालक वर्ग / कारागिर वर्ग / सैनिक वर्ग / दुकानदार वर्ग / गरिब वर्ग."* इसके बाद इराण से *एरियन* (कालखंड इ. पु. ९५ से इसा १७६) जंबुद्विप के पाकिस्तान क्षेत्र मे आया था. उस विद्वान ने भी, मेगास्थनिज के समान ही *"इंडिका"* ग्रंथ की रचना कि थी. उस ग्रंथ में भी, *"ब्राह्मण वर्ग / वैदिक धर्म"* होने का कोई प्रमाण नहीं है. तिसरा प्रमाण है *"अलब्रुनी का भारत"* - (इसवी ९ - १० वी शती) यह वैज्ञानिक विचार प्रवाह है. सभी विद्वान *अलब्रुनी* के विचारों को स्वीकार भी करते है. उन्होंने *"महाभारत"* को पुर्णतः नकारा है. बुध्द काल में *"बम्हण"* यह शब्द, विशेषतः प्रचलित था. *"ब्राम्हण"* यह शब्द प्रचलित नहीं था. *"बम्हण"* शब्द का सही अर्थ है *"विद्वान वर्ग."* दुसरा भी अर्थ भी है - *"नष्ट करना / श्रमण / समन / सुनना."* पाली भाषा में *(र) / ऋ / श / क्ष / त्र / ज्ञ"* यह शब्द नहीं है. बुध्द काल में *"ब्राम्ही लिपी - धम्म लिपी"* अस्तित्व में थी. एवं भाषा यह *"पाली प्राकृत भाषा"* व्यवहार में रही थी. सम्राट अशोक शिलालेख इसका प्रमाण देते है. जैसे चक्रवर्ती सम्राट अशोक के पुत्री का नाम *संघमित्ता* था. वैसे ही पुष्यमित्र का सही नाम *पुष्यमित्त* था. और उसने *"भरहुत स्तुप / सांची स्तुप की वेदिका"* बनायी थी. अर्थात पुष्यमित्त मौर्य यह *"बौध्द सम्राट"* दिखाई देता है. अर्थात बुध्द काल में *"ब्राह्मण वर्ग / वैदिक धर्म"* नहीं था. इस संदर्भ के और भी प्रमाण है. *"बम्हण"* यह शब्द का झुटा अर्थ, *"ब्राह्मण"* रुप में कर दिया गया था.

           जॉन एस. स्ट्रांग इनकी पुस्तक *"The legend of king Ashoka : A study and Translation of a AshokaVadana"* इस पुस्तक में केवल *पुष्यमित्त* यह संदर्भ दिखाई देता है. *"शुंग"* वंश नाम का उल्लेख नहीं है. *पी. लक्ष्मी नरसु* इन्होने *"जाति एक अध्ययन / The Essence of Buddhism"* इन पुस्तकों में, अच्छे से विवेचन किया है. *भर्तृहरी बौध्द दार्शनिक / इत्सिंग की यात्रा / लंकावतार सुत्त"* यह पुस्तके, हमें बौध्द विचारों का उचित बोध कराती है. *राहुल सांस्कृत्यायन* / केदारनाथ पांडे लिखित *"वोल्गा टु गंगा"* यह पुस्तक धम्म को, अलग ही मोड ले जाती है. इसका कारण भी, राहुल सांस्कृत्यायन इन्हे *"पाली भाषा"* का पुर्णतः ज्ञान ना होना है. यही पुस्तक, फिर विवाद को जन्म देती है. *बाबासाहेब डॉ आंबेडकर* इन्होने *"पुष्यमित्र शुंग द्वारा ब्रहदथ मौर्य की हत्या, कोई छोटी मोटी घटना नहीं थी. बल्की वह सुनियोजित षडयंत्र था"* यह कथन उस संदर्भ काल दृष्टी में, बिलकुल ही ठिक था. परंतु *"कालसापेक्ष संशोधन"* होकर, **बदलाव भी बाबासाहेब आंबेडकर"* इनके विचारों मे हमें दिखाई देते भी है. *भरहुत स्तुप* का ही संदर्भ ले. उस स्तुप संदर्भ में *"सुगनं रजे रमो गागी पुतस विसदेवस / पौतेण गोति पुतस्य अगर जुस पुतेण  / वाछि पुतेन धनभुतिन कारितं तोरनां / सिला कंमंतो च उपंण"* (XII) लार्ड कनिंगहॅम इन्होने, *ब्राह्मण विद्वानो* का सहयोग लिया था. तब उस ब्राह्मण ने, वह *"शिलालेख"* संस्कृत भाषा में है, यह संदर्भ देकर *"गागी"* इस शब्द को *"गार्गी"* बना दिया. जब की वह दोनो व्यक्ति अलग अलग है. जैसे की - *"बम्हण"* इस शब्द को *"ब्राह्मण"* बनाया है. महत्वपूर्ण विषय यह कि, *"भरहुत शिलालेख पाली भाषा"* का ही बोध कराता है. अभी अभी के शती में, *"विपश्यना साधना"* विषय पर बहुत वितंडवाद चर्चा दिखाई देती है. उसी में भर गिरकर, चायना के तंत्रज्ञान - वज्रयान संप्रदाय समुदायो की प्रस्तुत, *"फालुन दाफा साधना पध्दती"* की भी भर हो गयी है. फालुन दाफा के प्रस्तावक *"ली होमजी"* तो, उनके भाषण संपादित पुस्तक में, स्वयं कंफुज्ड दिखाई देते है. *"विपश्यना साधना"* का जिक्र तो, बुद्ध धम्म ग्रंथ के केवल *"सत्तीपठन सुत्त"* में दिखाई देता है. किसी अन्य धम्म ग्रंथ में, वह संदर्भ भी नहीं है. तो कोई *"दिड शहाणे,"* डॉ बाबासाहेब आंबेडकर इन्होने म्यानमार परिषद का संदर्भ देकरं, बाबासाहेब ने *"विपश्यना को नकारा है,"* प्रसार करते है. बाबासाहेब ने उस भाषण में *"Fatal"* (घातक) शब्द का प्रयोग किया है. धम्म में अब किसी संदर्भ का अति प्रयोग / दुरुपयोग होता है, तब वह *"घातक"* बन जाता है. इसे *"नकारना"* बिलकुल नहीं कहते. *"विपश्यना हो या फालुन दाफा साधना, वह संपूर्ण धम्म नहीं है. वह तो धम्म का बहुत छोटासा भाग है."* हमारा मिशन *"धम्म प्रसार - प्रचार"* होना चाहिए. ना कि *"विपश्यना साधना - फालुन दाफा साधना"* प्रसार - प्रचार. वही ये *"दिड शहाणे - त्रिपिटक"* का भी विरोध करते है. संदर्भ तो, बाबासाहेब आंबेडकर इनके पुस्तकों का देते है. बुध्द ने उसका *"धम्म तुम्हारे बुध्दी को स्वीकार हो तो ही स्वीकार करो"* यह कहना / *"अत्त दिपो भव |"* कहना, *"दिड शहाणे / देवदत्त प्रवृत्ति"* की बुध्दी, इतनी प्रकाशीत होगी यह कल्पना भी ना की होगी...!

        *"सिंधु घाटी सभ्यता"* को, *"तिन भागों"* में विभाजीत कर सकते हैं. जैसे कि - पुर्व सिंधु सभ्यता (इ. पु. ७५०० - ३३००) / सिंधु सभ्यता (इ. पु. ३३०० - २६००) / परिपक्व सिंधु सभ्यता (इ. पु. २६०० - १९००). सिंधु घाटी की सभ्यता यह *"नगरीय सभ्यता"* है. *ब्राह्मण - वैदिक* धर्म की सभ्यता, यह *"ग्रामीण सभ्यता"* है. और सिंधु घाटी में, ब्राह्मणी धर्म *"स्टेफि चरवाह"* के कोई भी *"DNA"* प्रमाण नहीं मिले है. पहिला बुध्द - *ताण्हणकर बुध्द* हमें, बौध्द संस्कृति के प्रमाण देते है. और वह बुध्द परंपरा आगे भी, निरंतर 

चलती रहती है. जैसे कि - *"ध्यानस्थ मुद्रा व्यक्ति"* - सिध्दार्थ बुद्ध मुद्रा ध्यानस्थ ही है. / *"धोलविरा चक्राकार स्तुप"* - पंजाब का संगोल स्तुप उसका प्रमाण है. / *"कप पर बैठा हुआ सिंह"* - सम्राट अशोक की राजमुद्रा सिंह ही है. बुध्द को सिंह भी कहा जाता है. / *"स्तुप के सामने तरणताल"* - वैशाली स्तुप के सामने भी तरणताल है. / *"सिंधु घाटी में वृषभ"* मिला - आंध्र प्रदेश अमरावती में भी वृषभ समान है. / *"सिंधु घाटी में स्वस्तिक"* चिन्ह मिला - बुध्द पाद में भी स्वस्तिक चिन्ह ही है. यह सभी चिन्ह हमें, *"बुध्द परंपरा"* का बोध कराते है. बुध्द काल से वह *"वंश परंपरा"*  चलते आयी है. जैसे कि - *"शाक्य वंश / कोलिय वंश / हरयक वंश / मौर्य वंश / कुषाण वंश / नाग वंश / शक वंश / गुप्त वंश / पाल वंश."* तथा *"शुंग वंश"* भी ब्राह्मणवाद ने डाला है.

         बुध्द काल ग्रंथ में, *"धम्म (धर्म)"* की परिभाषा दी‌ है - *"अत्तनो सभावं, अत्तनो लक्खनं, धारेति ति धम्मो |"* (अर्थात - जो अपने स्वभाव को धारण करता है, जो अपने लक्षण को धारण करता है, उसे ही धम्म (धर्म) कहते हैं.) यह परिभाषा *"सनातन बुद्ध धर्म"* की देण है. *"मराठी भाषा"* को अभिजात दर्जा मिलने के लिये, आखरी ब्राह्मणवाद को *"नाणेघाट शिलालेख"* का, संदर्भ लेना ही पडा है. जब कि *"मराठी भाषा"* को २००० साल पुरे नहीं हुये थे. मराठी भाषा शिलालेख पर, फिर कभी मै चर्चा करुंगा. साथ ही *"डार्विन सिध्दांत"* - मानव उत्पत्ती / *"होमोसेपियन"* - मानव का निर्माण विषय पर भी, फिर कभी चर्चा करुंगा. भारत की प्राचिन मानव खोपडी, *"नर्मदा मानव"* (पाच लाख वर्ष पुर्व का) को, *"मैने स्वयं"* अपने हाथ मे पकडे हुये देखा है. सिध्दार्थ गौतम बुद्ध और भी, *"७० साल पिछे"* (कार्बन डेटिंग नये संशोधन से : जन्म  इ. पु. ६२३ ना कि ५६३ / बुद्धत्व इ. पु. ५८१ / महापरिनिर्वाण इ. पु. ५८३) जाते है. *"सिंधु घाटी के सभ्यता लिपी"* को, अभी तक पढी / समझी नहीं गयी है. परंतु *"ब्राम्ही लिपी - धम्म लिपी"* यह पढी - समझी गयी है. अत: सभी लिपी की वह जननी है. वही *"पाली प्राकृत भाषा"* भी पढी / समझी गयी है. अत: सभी भाषांओं की मी, वह जननी है. *"तिसरी बुद्ध संगती"* (पहिली शती) में, बुध्द धर्म में *"हिनयान - महायान"* संप्रदाय में विभाजन हुआ था. और महायान संप्रदाय ने, *"हिब्रू संस्कृत भाषा"* को जन्म दिया है. हिनयानी संप्रदाय *"पाली भाषा"* से ही जुडा रहा. पाली भाषा पर संस्कार होने से, उस भाषा को *"हिब्रू संस्कृत भाषा"* कहा गया है. परंतु लिपी यह *"ब्राम्ही लिपी"* ही थी. आज की संस्कृत यह *"क्लासिकल संस्कृत"* है. और लिपी यह *"देवनागरी लिपी"* है. जो इसवी ११ वी शती में उसका *"प्राथमिक स्वरुप"* दिखाई देता है. और *इसवी १७९६* में *"देवनागरी लिपी का प्रारंभ"* हुआ है.

        *"हिब्रू संस्कृत भाषा"* का जन्म होने के बाद, पहिली शती से पाचवी शती में, *"अपभ्रंश भाषा"* का जन्म होता है. उसके बाद बाराहवी शती में, *"आदि हिंदी भाषा"* का जन्म हुआ है. *"सामान्यत: पाली प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही, आदि हिंदी भाषा का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है."* अब्दुल रहमान (अद्दहमान) यह *"आदि हिंदी"* भाषा का, पहिला कवि है. *संत कबिर* (१३९९ - १५१२) यह *"आदि हिंदी"* के कवि है. *अद्दाहमान / संत कबिर"* यह स्वयं को *"जुलाह / कोरी"* मानते थे. वैसे वे दोनो ही *"श्रमण परंपरा के बौध्द"* ही थे. मुसलमान होने के बाद उनकी पहचान *"जुलाह"* हो गयी. पहले वे *"कोरी > कोली > कोलिय"* थे, जिनका धंदा *"बुनकरी"* ही रहा था. सिध्दार्थ की पत्नी तथा मां, ये *"कोलीय"* ही थी. उन का धंदा भी *"बुनकरी"* ही था. इस संदर्भ में सविस्तर चर्चा हम फिर कभी करेंगे. उसके बाद अठरावी शती में *"आधुनिक हिंदी"* का उगम होता है. *गार्सा तासी* (१८३९) यह आधुनिक हिंदी का पहिला इतिहासकार रहा है. *"तिन मराठी शिलालेख"* महाराष्ट्र / कर्नाटक प्रांत में मिले हैं. उस पर चर्चा हम फिर कभी करेंगे. पहिली शती में *"हिनयान महायान"* बौध्द संप्रदाय विभाजन के बाद / इसवी पाचवी शती में, महायान ने *"वज्रयान संप्रदाय"* को जन्म दिया था. और आठवी शती में वज्रयान ने *"तंत्रयान संप्रदाय"* को जन्म दिया. इसवी ८५० में *शंकर* नाम के व्यक्ती का जन्म होता है. उसे *"प्रछन्न बौध्द"* भी कहते हैं. जो दसवी शती में *"आदि शंकराचार्य"* घोषित कर, वो *"चार पिठों"* का निर्माण करता है. *"वज्रयान तथा तंत्रयान संप्रदाय"* ने,  दसवी शती के बाद *"शैव पंथ / वैष्णव पंथ/ शाक्त पंथ"* को जन्म दिया है. और आदि शंकराचार्य दसवी शती में, *"महायान बौध्द विहारों"* पर अधिपत्य करता है. और बारावी - तेरावी शती में, *"चारो पीठों मे चार वेद का निर्माण"* होता है. *" वैदिक धर्म / ब्राह्मण धर्म"* की स्थापना का कालखंड यह ११ - १४ शती है. *"ऋग्वेद"* की प्रमाणित प्रत *"युनोस्को को इसवी १४७०"* को भेजी गयी है. *"वेद / उपनिषदे / रामायण / महाभारत"* यह सभी ग्रंथ, कागज पर ही अंकित है. ना कि कोई *"शिलालेख / ताम्रपट / ताडपत्र"* पर अंकित है. कागज का शोध *"इसवी १० वी शती में ही चायना"* में लगा है. इस महत्वपूर्ण घटना को भी समझना बहुत जरुरी है. *"बुध्द धर्म"* की अवनती को, वही से ही शुरुवात होती है. *"ब्राह्मणी धर्म"* आगे जाकर, *"हिंदु धर्म"* में परिवर्तीत हो जाता है. उस विषय पर चर्चा हम फिर कभी करेंगे.


---------------------------------------------

▪️ *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य'*

       नागपूर दिनांक १८ अक्तुबर २०२५

No comments:

Post a Comment