Thursday, 17 April 2025

 ‌👌 *दीक्षाभूमी पर दिल्ली का रामायण भाट / पत्रकार- अशोक वानखेडे का रामायण पाठ डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जयंती के पर्व पर !*

        *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७

राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल 

एक्स व्हिजिटिंग प्रोफेसर, डॉ बी आर आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ महु म.प्र.

मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२


           १४ अप्रेल २०२५. नागपुर की पावन दीक्षाभूमी. *डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर संयुक्त नागरी समारोह समिती"* की माध्यम से, परम पुज्य *"बोधिसत्व डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जयंती समारोह २०२५"* का आयोजन किया गया. साथ में ही *"डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर स्मारक समिती"* को साथ में लिया गया. स्मारक समिती की संयुक्त तत्वज्ञान में, *"डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जयंती"* को मनाना कुछ भी बुरा नही है. अच्छा ही प्रयास है. डॉ बाबासाहेब आंबेडकर संयुक्त नागरी समिती के अध्यक्ष / मेरे परम मित्र *प्रा. डॉ. प्रदीप आगलावे* है, और वे रा. तु. म. नागपुर विद्यापीठ के *"डॉ बाबासाहेब आंबेडकर विचारधारा"* विभाग के विभागाध्यक्ष तथा *"डॉ बाबासाहेब आंबेडकर चरित्र साधने प्रकाशन समिती"* के "सदस्य सचिव" पद पर रहे है. उनके कार्यकाल में बाबासाहेब डॉ आंबेडकर इनके जो ग्रंथ प्रकाशन हुये है, वह ग्रंथ प्रकाशन *"सदोष"* होने के साथ साथ / स्वयं को *"संपादक"* लिखने के कारण ही, वह बहुत विवाद का विषय रहा है. ग्रंथ विवाद के और बहुत कारण रहे है, उस पर हम फिर कभी चर्चा करेंगे. प्रदीप आगलावे और मेरी बहुत *"घनिष्ठ मित्रता"* होकर भी, जो विचार *"डॉ बाबासाहेब आंबेडकर विचारों से मेल ना खाने"* से, दीक्षाभूमी पर १४ अप्रेल २०२५ को *"संयुक्त जयंती"* पर, नयी दिल्ली के रामायण - महाभारत भाट पत्रकार *अशोक वानखेडे* का भाषण, *"दीक्षाभूमी पर रामायण पाठ"* दिखाई दिया. अगर डॉ प्रदीप आगलावे वा संयुक्त नागरी समिती ने वह जयंती समारोह, *"दीक्षाभूमी"* पर ना लेकरं अन्य जगह लिया होता तो, यह लेख लिखने का कोई औचित्य नहीं रहा होता. *अशोक वानखेडे* का वह रामायण पाठ *"दीक्षाभूमी"* पर हुआ है. वैसे मैंने *अशोक वानखेडे* इनकी बहुत  सी *"यु-ट्युब पर चर्चा"* सुनी है. अशोक वानखेडे पत्रकार है. थोडा बहुत वक्ता भी है. परंतु अशोक वानखेडे यह *"विचारविध"* नहीं है. *"आंबेडकरी विचारविध"* तो बिलकुल ही नही‌ है. सदर जयंती पर, दिल्ली विद्यापीठ के *प्रा. डॉ. विजेंदर सिंग चौहान* भी वक्ता थे. परंतु अशोक वानखेडे द्वारा भाषण में आंबेडकरी जनता को *"रामायण पाठ"* बता गया. अत: हमें उस पावन अवसर पर, किस वक्ता को बुलाया जाए, यह सेन्स होना भी बहुत जरुरी है. क्यौं कि, डॉ बाबासाहेब आंबेडकर इन पर बोलने वाले, *"संशोधनामक वक्ता"* उपलब्ध होने पर, ऐसी मुर्खता करना क्षम्य नहीं कहा जा सकता.

           नयी दिल्ली के वरीष्ठ पत्रकार *अशोक वानखेडे* द्वारा, १४ अप्रेल को दीक्षाभूमी पर दिया गया भाषण, वह पुर्णतः राजकीय भाषण दिखाई देता है. ब्राम्हण - भाजपा सत्ता विरोधी वह भाषण था. अर्थात *"ब्राम्हण भाट विरोध में, अ-ब्राम्हण भाट का वह भाषण हमें दिखाई दिया."* अशोक वानखेडे ये व्यक्ती, *"साम्यवादी विचारवादी"* भी नहीं दिखाई देते. उन्होंने ब्राह्मण ग्रंथ *"रामायण - महाभारत"* पुर्णतः पढी है या नहीं ? यह भी प्रश्न है. अगर पढी हो तो, अशोक वानखेडे इन्होने, उसे समझा - उमझा नहीं होगा. अशोक वानखेडे ने दीक्षाभूमी की तुलना *"कुंभ / अयोध्या"* से की है. *"अयोध्या"* का अलग ही प्राचिन इतिहास रहा है. अयोध्या का मुल नाम *"साकेत"* था, जो बुध्द धर्मीय राजा की राजधानी थी. वह शहर *"युध्द के बिना जितने के कारण उसका नाम अ- योध्दा"* पडा. रामायण तथा महाभारत यह काल्पनिक महाकाव्य है. *"राम - रावण - अंगद"* इनके कुछ संदर्भ भी, अशोक वानखेडे इन्होने दीक्षाभूमी पर दिये. तथा *"राम को समझना / राम को जीवन में उतारना"* भी अशोक वानखेडे बोल गये. *"हिंदुत्व"* भी बता गये है. हमारा विद्वत महानुभाव - अशोक वानखेडे का भाषण बडे चाव से सुन रहे थे. *महर्षी व्यास* इन्होने तो, *"महाभारत"* ग्रंथ का केवल संपादन किया. वह उनकी रचना नहीं की. महाभारत का दुसरा संपादक *"वैश्यपायन"* है. और यह रचना *"११ वी शती"* के बाद ही कागद पर लिखी गयी. कागज का शोध १० वी शती में *"चीन"* देश में लगा है. उनके प्राचिन *"शीलालेख / ताम्रपट  / ताडपत्र"* पर लिखाण उपलब्ध नहीं है. *"महायान बुध्द संप्रदाय"* का निर्माण भी इ. पु. १ ली शती हुआ. और पाचवी शती में महायान ने *"वज्रयान संप्रदाय"* को तथा आठवी शती में वज्रयान ने *"तंत्रयान संप्रदाय"* को जन्म दिया. इसवी ८५० में *शंकर* नाम के व्यक्ती का जन्म होता है, उसे *"प्रच्छन्न बौध्द"* भी कहा जाता है. इसवी ९ - १० वी शती में वज्रयान / तंत्रयान ने, *"वैष्णव पंथ / शैव पंथ / शाक्त पंथ"* को जन्म दिया. शंकर नाम का व्यक्ती ९ - १० शती में, स्वयं को *"आदि शंकराचार्य"* घोषित कर, *"चार पीठों"* का वो निर्माण करता है. और समस्त *"महायान बुध्द संप्रदाय"* मंदिरों पर, अपना अधिपत्य जमाता है. इस विषय पर हम फिर कभी सविस्तर चर्चा करेंगे. मुझे याद है कि, अशोक वानखेडे इन्होने स्वयं को, *"उज्जैन के महाकाल का भक्त"* कहा है. भक्ति करना यह अशोक वानखेडे का निजी विषय है. हमने १९९२ से *"धम्म दीक्षा समारोह"* का आयोजन शुरु किया था. हमारे इस मिशन के कारण *प्रा. रुपा कुळकर्णी / प्रा. प्रभाकर पावडे / कवि - सुरेश भट / बंगलोर के दलित व्हाईस पत्रिका के संपादक - ओबीसी नेता व्ही. टी. राजशेखर / प्रसिद्ध हिंदी दलित कवि - मोहनदास नैमिशराय"* आदि मान्यवरों ने *"बुध्द का दामन"* थामा है.  दिल्ली मे नैमिशराय जी से मेरी भेट होती रही. अगर *अशोक वानखेडे* भी *"बुध्द का दामन"* थामना चाहता हो तो, उसका स्वागत है. मैं स्वयं उसकी व्यवस्था करुंगा. अगर अशोक वानखेडे को *"वैज्ञानिक निष्ठ / स्पष्ट निष्ठ"* व्यक्ती बनना हो तो !!! नहीं तो *"प्रज्ञा युक्त दृष्टी ना होकर"* भी, अ-प्रज्ञा भाव का अशोक वानखेडे उपदेश ना करे.

         पत्रकार *अशोक वानखेडे* हो या अन्य कोई भी ओ.बी.सी. वर्ग बांधव हो, उन्हे भी यह समझना जरुरी है कि, *"रामायण - महाभारत"* यह दो महाकाव्य / *चार वेद - उपनिषद - मनुस्मृती - भगवत गीता"* आदि ब्राह्मण ग्रंथ की निर्मिती किसने की ? ब्राह्मण वर्ग यह *"विदेशी"* है. और *"चार वर्ण की उत्पत्ती"* यह इसवी १० शती के बाद दिखाई देती है. इस के पहले के काल *"बौध्द काल"* दिखाई देता है. ब्राह्मण ग्रंथ में शुद्र इस संकल्पना द्वारा, *"ओबीसी वर्ग"* को हिन दर्जा दिया गया. फिर *"देव - धर्मांधता"* द्वारा *"मानसिक गुलामी"* का षडयंत्र रचा गया. ब्राह्मण धर्म ग्रंथ में *"असमानता - बलात्कार - अनैतिकता"* आदि की भरमार है. जैसे कि -  *"मध्यायत्वर्त्वनभवदभिखे कामं कृण्वाने पितरी युवात्याम् | मनानग्रेतो जहर्तुविर्यन्ता सानौ निषिक्तं सुकृत्यस्य यौनौ: ||"* (अर्थात - जिस समय पिता (ब्रम्ह) ने अपनी युवती कन्या सरस्वति के साथ यथोच्छ कर्म किया था, उस समय उनके संभोग कर्म से समिप ही थोडा विर्य गिरा. परस्पर अभिगमन करते हुये उन दोनो ने, वह विर्य यज्ञ के उंचे स्थान - योनी में छोडा था) यहां ब्रम्हा अपनी पुत्री से ही अनैतिक कर्म कर, उसे अपनी पत्नी बनाता है. *"रामायण"* में राम द्वारा सीता को वन में छोडने का संदर्भ - *"अप्यहं जीवितं जह्या युष्पान् वा पुरुषर्थभा: | अपवादभयाद् भीत: किं पुनर्जनकात्मजाम् ||१४||"* (अर्थात - नरश्रेष्ठो बंधुंओ ! मैं लोक निंदा के भय से, अपने प्राणो के लिये तुम सब को भी त्याग सकता हुं. फिर सीता को त्यागना कौनसी बडी बात है ?) *"*श्वसचं प्रभाते सौमित्रे सुमन्त्राधिष्ठितं रथम् | आरुढयं सीतामारोध्य विषयान्तं सुमुत्सुज ||१६||"* (अर्थात - अत: सुमित्रा कुमार ! कल सबेरे तुम सारथी बनकर, सुमन्त्र के साथ संचालित रथ पर आरूढ हो. सीता को भी उसी पर चढाकर, इस राज्य के सीमा के बाहर छोड दो.) आज बहुत कुछ सुविधा उपलब्ध है. उस समय जंगल - सुनसान स्थिती में छोडना, स्त्री की स्थिती को समझना होगा. राम द्वारा शुद्र का वध संदर्भ - *"भाषतस्तस्य शुद्रस्य खड्गं सुरुचिरप्रभम् | निष्कृष्य कोषाद् विमलं शिरविच्छेद राघव: ||४||"* (अर्थात - वह इस प्रकार वह कह रहा था कि, श्रीरामचंद्र ने म्यान से चमचमाती तलवार खींच ली. और उसी से शुद्र का सीर काट दिया.) राम ने लक्ष्मण को त्याग वर्णन - *"विसर्जये त्वां सौमित्रे मा भुद् धर्मविपर्यम्: | त्यागो वो वा विहित: साधुनां तुभयं समम् ||१३||"* (अर्थात - हे सुमित्रनंदन ! मैं तुम्हारा परित्याग करता हुं. जिससे धर्म का लोप ना हो. साधु पुरुषों का त्याग किया जाए. अथवा वध - दोनो समान ही है.) इसके बाद लक्ष्मण प्राणवायु रोक कर आत्महत्या करता है. वह श्लोक - *"स गत्वा सरयुतीरमुपस्पश्य कक्षतांजली: | निग्रह सर्वस्त्रोतांसि नि:श्वासं ज मुमोच हे ||१५||"* (अर्थात - सरयु किनारे जाकर उन्होंने आचमन किया. और हाथ जोडकर सम्पुर्ण इंद्रीयों को वश में करा के, प्राणवायु को रोक दिया.) रामायण में *"बुध्द"* को भी चोर कहा गया है. वह श्लोक - *"यथा हि चोर: से तथा हि बुध्दसृतथागतं नास्तिकमत्र विध्दी | तस्माध्दिय: शक्यतम् प्रजानां से नास्तिके नाभिमुखे बुध: स्यात् ||३४||"* (रामायण, अयोध्या कांड) (अर्थात - जैसे चोर दंडनीय होता है, उसी प्रकार (वेद विरोधी) बुद्ध (बुध्द मतावलम्बी) भी दण्डनीय है. तथागत (नास्तिक विशेष) और नास्तिक (चार्वाक) को भी, यहां उसी कोटी का ही समझना चाहिये. इसीलिए प्रजा पर अनुग्रह करने के लिये, राजा द्वारा जो नास्तिक को दण्ड दिलाया जा सके, उसे तो चोर के समान ही दण्ड दिलाया जाए. परंतु जो वश के बाहर हो, उस नास्तिक के प्रति विद्वान ब्राह्मण, कभी उन्मुख ना हो, उनसे वार्तालाप ना करे.) राम ने *"सीता के चारित्र्य"* पर लगाया हुआ लांछन / सीता द्वारा रावण का चित्र छाती पर चिपकाना / राम के साली कुकुबावनी का संदर्भ / आदि अनेक संदर्भ है. और *अशोक वानखेडे* हमें राम को समझो / राम पुजा की वस्तु नहीं है, *"राम जीवन में उतारने"* के लिये हैं. यह उपदेश दीक्षाभूमी से दे रहा है. अशोक वानखेडे, पहले तुम्हे रामायण आदी ब्राह्मण ग्रंथ अच्छे से अध्ययन करना है. बकवास बाते करना बंद करो.

         *"महाभारत"* में श्रीकृष्ण का संदर्भ पर बहुत कुछ बताया जा सकता है. भार्गव पुत्री पर *"बलात्कार"* का श्लोक भी देखे. *"एवमुक्त्या तु तां कन्या दोर्भ्या प्राप्त बलाद बली | विस्फुरन्ती यथाकामं मैथुनाओपचक्रमे ||१६||"*(अर्थात - ऐसा कहकर उस बलवान नरेश ने उस भार्गव कन्या को, बलपूर्वक अपने दोनो भुजाओं में भर लिया. वह लडकी उसकी पकड से छुटने के लिये, लटपटाने लगी तो भी, उसने अपनी इच्छा नुसार उसके साथ समागमन किया.) और *"मनुस्मृती"* ग्रंथ का संदर्भ देकर *"असमानता"* यह श्लोक देखे. *"लोकांनां तु विवृध्दयर्थ मुखबाहुरुपादत: | ब्राह्मणं क्षत्रिय वैश्य शुद्रं च निरवर्तयत् ||३१||"* (अर्थात - लोक वृध्दी के लिये ब्रम्हा ने मुख, बाहु, ऊरु और पैर से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्रो की सृष्टी की.) मनुस्मृती में गोमांस सेवन का संदर्भ है. तथा कुत्ते के मांस सेवन का भी संदर्भ है. श्लोक देखे - *"सुधार्तधातु मभ्यागाद्विश्वामित्र: ध्वजाधनिम् | भण्डालहस्तादादाय धर्माधर्मविचक्षण: ||१०८||"* मनुस्मृती भाषा टिका संहिता (अर्थात - अधर्म के जाननेवाले विश्वामित्र ऋषी भुख से आर्त होकर, चाण्डाल के हाथ से कुत्ते के जंघे का मांस लेकरं, खाने को तैयार हुये थे.) *"भारद्वाज: क्षुधार्तस्तु सपुत्रो विजने वने | वड्डिर्गा: प्रतिजप्राह वृद्दोस्तक्षणो महातया: ||१०७||"* मनुस्मृती भाषा टिका संहिता (अर्थात - निर्जन वन में क्षुधा से पिडित महातपस्वी भारद्वाज ऋषी पुत्र के साथ वृधु नामक बढई से, बहुत से गायें मांगी थी.)  खाने योग्य पशुओं का मासं खाना पाप नहीं है. क्यौं कि ब्रम्हा ने खानेवाले / खाने योग्य दोनो को बताया है. जब कोई व्यक्ती विधीपूर्वक अनुष्ठान करते हुये मांस नहीं खाता हो तो, उसकी मृत्यू के बाद इक्कीस पुनर्जन्मों तक वाभी का पशु बनता है. (मनुस्मृती ५/३०-३५) *गायत्री मंत्र"* के तीन भावार्थ बताये गये है. चौथा भावार्थ भी देखे. *"ॐ भुर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य घीमहि धियो योन: प्रचोदयात् |"* (अर्थात - हम उस ब्राह्मण परमात्मा का ध्यान करे, जो तेजस्वी - प्राण स्वरुप - वरने योग्य  - देवस्वरुप हो. उन्हे अपनी योनी शुभ कार्यों के लिये प्रेरीत करे.) *"शाक्त परंपरा"* में महालक्ष्मी द्वारा विष्णु और सरस्वती की उत्पत्ती हुयी है. विष्णु और सरस्वती भाई - बहन है. सरस्वती का विवाह ब्रम्हा से और ब्रम्हा की पुत्री का विवाह विष्णु से हुआ. विष्णु की सरस्वती की पुत्री *"भांजी"* हुयी नां ? विष्णु का *"भांजी पर बलात्कार!"* प्राचिन ब्राह्मण ग्रंथ में *"इंद्र आदि का बलात्कार"* भी बहुत चर्चीत है. अत: यह विषय को यही रोकना ठिक होगा. अगर पत्रकार *अशोक वानखेडे* इन अनैतिकता को मान्यता देता हो तो, हमें कुछ कहना नहीं है. शायद यह विषय उनके भावना से जुडा हो.

          नागपुर की दीक्षाभूमी यह तो, बौध्द वर्ग की *"पावन भुमी"* है. और हमारे बुध्द धर्म में, *"स्वातंत्र्य / समता / बंधुता / न्याय"* इसको महत्वपूर्ण स्थान दिया है. *"भारत का संविधान"* लिखते समय डॉ बाबासाहेब आंबेडकर इन्होने, *"प्रजातंत्र"* (Democracy) यह भाव *"बौध्द भिक्खु संघ"* होने का जिक्र किया है. बुध्द का संदेश - *"अत्त दिपो भव |"*  (अर्थात - स्वयं का दीप स्वयं बनो. स्वयं को शरण जाओ. दुसरों को शरण जाना नहीं.) *"चरथ भिक्खवे चारिकं, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकंपाय अत्थाय, हिताय, सुखाय देवमनुस्सानं, देसेत्थ भिक्खवे धम्मं आदि कल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसान कल्याणं, सात्थं सव्यंजनं केवल परिपुण्णं परिसुध्दं ब्रम्हचरियं पकासेथ ||"* - बुद्ध (अर्थात - भिक्खुओ, बहुजन के हित के लिये, बहुजन के सुख के लिये, लोगों पर अनुकम्पा कर, देव और मनुष्यों के कल्याण के लिये, धम्म्मोपदेश का प्रसार करने के लिये भ्रमण करो. प्रारंभ में कल्याणप्रद, मध्य में कल्याणप्रद और अंत में कल्याणप्रद ऐसे धम्म मार्ग का अर्थ, तथा भावसहित परिशुध्द ऐसे धर्म का ब्रम्हचर्य रखकर प्रचार करो.) *"सब्ब पापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा | सचित्त परियो दपनं, एतं बुध्दानं सासनं ||"* बुद्ध (अर्थात - सभी अकुशल कर्म ना करना, कुशल कर्म करना, चित्त को परीशुध्द करना, यही बुद्ध का शासन है. शिक्षा है‌) यह सभी शिक्षा हमें, *"प्रज्ञा - शील - करुणा"* का संदेश देती है. बुध्द ने *"श्रध्दा"* को अपना बीज माना है. *"सध्दां बिजं तपो वुट्ठि पञ्ञा मे | हिरि ईसा मनो योत्तं सति मे फालपाचनं || कायगुत्तो वचिगुत्तो आहारे उदरे यतो | सच्चं करोति निद्दानं सोरच्चं मे पमोचनं || विरिय में धुरधोरटहं योगरक्खेमाधिवाहनं | गच्छति अविवञन्त यत्थ गन्त्वान सोचति ||"* (सुत्तपिटक - कसिभारद्वाज सुत्त) (अर्थात - श्रध्दा यह मेरा बीज है. तपश्चर्या यह मेरी वृष्टी, प्रज्ञा यह मेरा जु और नांगर, पापलज्जा यह मेरा इसाड, चित्त यह रस्सी, और स्मृति (जागृति) यह मेरा फाळ और चाबुक है. काय तथा वाचा से मैं संरक्षण करता हुं. उदार निर्वाह आहार में संयमीत रहता हुं. सत्य यह मेरा निंदन है. और संतोष यह मेरी छुट्टी है‌. तथा धुरा युक्त मेरा उत्साह यह निर्वाणाभिमुख की ओर ले जाता है. वहां जाने पर वह पिछे लौटता नहीं है. वह शोकरहीत हो जाता है.) बुध्द यह *"प्रज्ञा युक्त श्रध्दा"* की वकालत करते है. अगर श्रध्दा में *"प्रज्ञा"* ना हो तो, वह *"अंधश्रद्धा"* होती है. *"विपश्यना"* विवाद भी, उसी भाव की अनुभुती कराता है. विपश्यना यह बुद्ध धम्म का केवल एक भाग है‌. *"धम्म"* पालन / प्रसार / प्रचार हमारा प्रमुख लक्ष हो...! कुछ लोग आंबेडकरी - बुद्ध विचार को ना समजते हुये, केवल मुजोरी करते है. और बहुत ज्यादा ज्ञान उन्हे है, इसी अंदाज में ही रहते है. वही हमारे कुछ लोगों में,  *"प्रज्ञा - शील - करुणा"* का अभाव दिखाई देता है. जो बडा ही चिंता का विषय है.


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▪️ *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य'*

       नागपुर दिनांक १७ अप्रेल २०२५

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