Sunday 30 April 2023

 🎓 *सर्वोच्च न्यायालय द्वारा द्वेषमुलक भाषण संदर्भित निर्णय तथा भारत की धर्मांधी राजनीति ... !*

   *डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य'* नागपुर १७

राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल 

मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२


     अभी अभी मा. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति द्वय *न्या. के. एम जोसेफ / न्या. बी.‌ व्ही. नागरत्ना* इन्होंने, "राजनीतिक नेता (?) द्वारा द्वेषमुलक भाषण देना तथा धर्मांधता" के संदर्भ में, जो निर्णय दिया है, उसका तो स्वागत करना ही होगा. साथ ही हमारे राजनीतिक नेताओं (?) द्वारा, उसके दुरुपयोग होने पर चिंता भी...! मा. सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा है कि, *"द्वेषमुलक भाषण करनेवाला कोई भी व्यक्ति हों, उसके विरोध में केस (FIR) दायर करना है. संबधित व्यक्ति के विरोध में, यह केस (FIR) दायर करते समय, उस व्यक्ति का धर्म भी ना देखें. तब भी भारत की धर्मनिरपेक्षता यह जीवित रहेगी. इस संदर्भ में दिरंगाई हुयी तो, यह न्यायालय की अवमानना मानी जाएगी."*

     मा. सर्वोच्च न्यायालय ने यह महत्वपुर्ण निर्णय देते समय, सन २०२२ के *उत्तर प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखंड* इन तिन राज्यों की व्याप्ति को बढाकर, समस्त भारत के लिए इसे लागु किया है. न्यायालय द्वारा यह चिंता भी जताई गयी कि, *"धर्म के नाम से, अब हम कहां पहुंच गये है‌ ? धर्म की यह संकुचित संकल्पना, हमारे लिए बडा ही धोकादायक विषय है. तथा "धार्मिक तटस्थता" वाले हमारे देश में, इस प्रकार की घटना होना, यह हमारे लिए तो, बहुत धक्कादायक है...!"* भारतीय संविधान की धारा १५३अ, १५३ब, २९५अ तथा ५०५ का उल्लंघन करनेवाला, कोई भाषण या कृती अगर दिखाई देती हो तो, त्वरीत किसी भी शिकायत की राह ना देखते हुये, उसकी दखल लेना बहुत जरुरी है. अर्थात पोलिस विभाग पर, यह नैतिक दायित्व आ गया है.

     मा. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वय *न्या. के. एम.‌ जोसेफ / न्या. बी. व्ही. नागरत्ना* इन्होने यह निर्णय देने के पहले, *"बिल्किस बानो (गुजरात) प्रकरण"* पर  निर्णय देते हुये, केंद्र सरकार तथा गुजरात सरकार को चेतावणी भरे शब्दों में कहां कि, *"गुजरात के बिल्किस बानो बलात्कार प्रकरण के ग्यारह दोषीयों की, शिक्षा माफ कराकर, आप देश को क्या संदेश देना चाहते है ? यह बलात्कार प्रकरण एवं सामुहिक हत्या प्रकरण, यह कोई साधारण कलम ३०२ नही है. आज वहां बिल्किस है. कल आप और हम भी हो सकते है."* उसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वय *न्या. एम. आर. शहा / न्या. अहसानुद्दीन अमानतुल्लाह* इनके पीठ ने, "वकिल वर्ग द्वारा  संप कराना" इस संदर्भ में कहा है कि, *"बार कौंसिल का कोई भी सदस्य, संप (Strike) पर कभी नही जा सकता है. अगर वकिल संप पर गया हो तो, न्यायालयीन कामों में बाधा आयेंगी."* अर्थात संप करने के संदर्भ में कहां जाएं तो, डॉक्टर आदी वर्गों को भी, संप करने संदर्भ में, रोक लगायी गयी है.‌ इसका यह अर्थ कदापी नही है कि, *"भारतीय संविधान"* द्वारा हमारे *"प्रदत्त अधिकारों"* को बाधा लायी गयी है. केवल हमारे आंदोलन करने का तरिका बदला है.

      मा. सर्वोच्च न्यायालय के सरन्यायाधीश *धनंजय चंद्रचूड* इनकी अध्यक्षता की पीठ ने, दिये गये तिन निर्णय बहुत ही महत्वपुर्ण है. पहिला निर्णय - "महाराष्ट्र के तत्कालिन महामहिम राज्यपाल कोश्यारी - शिवसेना फुट प्रकरण" का है. इस प्रकरण पर पीठ ने, तत्कालिन महामहिम राज्यपाल को, उसके प्रदत्त अधिकारों को बताते हुये कहां कि, *"राज्यपाल ने अपने प्रदत्त अधिकारों का, उचित ऐसा निर्णय लेना अपेक्षित है. क्यौं कि, विश्वासदर्शक (?) ठराव के कारण, सरकार गिर भी सकती है."* दुसरा प्रकरण - "मलयालम वृत्तवाहीनी बंदी प्रकरण" का है. सदर पीठ ने केंद्र सरकार के कान टोचते हुये कहा किं, *"सरकार विरोधी भुमिका रखना, यह बातें देश विरोधी भुमीका, कैसे हो सकती है ? लोकतंत्र को मजबुत रखने के लिए, हर मिडिया को स्वतंत्र होना बहुत जरुरी है. आप मिडिया से यह अपेक्षा कैसे कर सकते हो कि, वो आप की ही बातें सुने."* तिसरा निर्णय - "वकिलों के न्यायालयों में उपस्थिति" का है. न्या. चंद्रचूड की पीठ ने कहां कि, *"माफ करे, मैडम.‌ यहां कौन उपस्थित है ? यह हमे मालुम है. वकिलों को महसुल मिला देने के लिए, यह न्यायालयें नही बनी है. और हम ऐसा करेंगें भी नही."* उपरोक्त सभी निर्णय भारतीय न्याय व्यवस्था के, *"सशक्त वॉचडॉगीता"* का परिचय दे रहे है. जो काबिले - ए - तारिफ विषय कहा जा सकता है. हमे उपरोक्त न्यायालनीय सभी निर्णयों का स्वागत करना होगा. क्यौं कि, पिछले कुछ विवादीत न्यायालयीन निर्णयों (?) के कारण, भारतीय न्याय व्यवस्था की छबी खराब भी हो गयी थी. उस पर भी हम थोडी चर्चा करेंगे.

      न्याय व्यवस्था के विवादित निर्णय है - *"रामजन्मभूमी मंदिर प्रकरण / मागास वर्ग समुदायों का मागास वर्ग आरक्षण प्रकरण / आयसोलेटेड पोष्ट पदोन्नती आरक्षण प्रकरण / राहुल गांधी दोषता का गुजरात न्यायालय प्रकरण / नरोदा (गुजरात) प्रकरण के सभी आरोपियों को निर्दोष छोडना प्रकरण / राफेल प्रकरण"* आदी बहुत से प्रकरण रहे है.‌ न्यायालय मे आदमी ही न्याय देता है. कोई सुपर पावर शक्ती नही. अत: न्याय देने में गलती भी हो सकती है. सवाल यह है कि, क्या वह गलती होश हवास से की गयी है ? क्या वह गलती करने में, कोई बडा षडयन्त्र रचा गया है ? क्या वह गलती, विचारों के द्विविधा से हो गयी है ? या न्याय व्यवस्था पर *ब्राम्हणी (?) अल्पसंख्यक वर्ग"* की एकाधिकार शाही होने से, *"बहुसंख्यक समाज"* हमेशा गुलाम बना रहे, यह कोई गहरी साजिश है ? हमें बचपन एक कहावत हमेशा सिखायी गयी. वह अंग्रेज़ी की कहावत है, *"To err is human being. (गलती करना यह मानव का स्वभाव गुण है."* हमारे बचपन की वह कहावत, आज हम समाज पा रहे है.‌ *"हमे हमारे गलती का अहसास, अभी अभी समज में आ रहा है."*  सबसे बडा सवाल तो यह है कि, *"क्या भारतीय न्याय व्यवस्था (?), हमारे भारतीय बहुसंख्यक समाज को, सही न्याय देने में सफल हुयी है ? क्या समान नागरी कायदा, भारतीय न्याय व्यवस्था में दिखाई देता है ?"* अगर उत्तर *"ना"* हो तो, इसका मुख्य कारण क्या है ?  अगर उत्तर *"हां"* हो तो, वह सफल हुयी है, तो वह कैसे ? और यह राष्ट्रिय चर्चा का बडा विषय है.

     अब हम उन विवादित प्रकरण पर, थोडी चर्चा करेंगे. *"रामजन्मभूमी मंदिर प्रकरण"* - को लो. इसमें *"प्रायमा फेसी"* क्या है ? प्राचिन बौध्द अवशेष संदर्भ तो, बौध्द नगरी *"साकेत"* होने का संदर्भ बयाण करती है.‌ वह प्राचिन शहर *बिना युध्द से जितने कारण,"* उसका नाम *"अयोध्दा"* पडा. वही उसी संदर्भ में, बौध्द समुदायों द्वारा दायर याचिका सर्वोच्च न्यायालय में प्रलंबीत होने पर भी, *"रामजन्मभूमी मंदिर बांधकाम"* चालु होना भी है ? क्या यह सही न्याय का परिपाक है ? राम के अस्तित्व का भी प्रश्न है. क्या सर्वोच्च न्यायालय, राम का अस्तित्व सिध्द कर पायी है ? हमें किसी की भावना को आहत करने की, बिलकुल मंशा नही है. यहां सवाल, न्याय व्यवस्था के गरीमा का है. *"राहुल गांधी दोषता का गुजरात न्याय प्रकरण"* भी लो. राहुल गांधी का दोष क्या इतना था कि, उस दो साल की सजा मिल जाएं ? अब हमें भविष्य में, न्यायालय सें उचित न्याय की अपेक्षा है. वही *"फौजदारी प्रक्रिया संहिता"* का कलम ३८९ के, सही विवेचन का भी है.‌ वही राहुल गांधी गुजरात का निवासी नही है. फिर कलम २०२ का भी प्रश्न है. यह सारे प्रश्न, राहुल गांधी के वकिल की ज्ञान कसोटी है.

     *"आयसोलेटेड पोष्ट पर मागास वर्ग आरक्षण"*  को न्यायालय ने नकारा है. अगर मागास वर्ग समुहों को, आयसोलेटेड पोष्ट पर सरकार पदोन्नती ना दे तो, फिर मागास वर्ग समुह की नियुक्ती, उस पोष्ट पर कैसे संभव है ? सदियों से उन वर्ग पर अन्याय होते आया है. वह भरपाई कैसी पुरी होगी ? दुसरा भी मागास वर्ग समुदायों का प्रश्न है, *"मागास वर्गियों को नोकरी में आरक्षण."* मागास वर्ग समुदायों को आरक्षण तो प्रदान है, परंतु उसकी नियमित रूप सें, अमल नही किया जाता. या योग्य प्रमाण में, उन समुहों की नियुक्ती नही होती. *"आरक्षण की कुल मर्यादा ५०% निहित की गयी है."* क्या मागास वर्ग समुहों की जनसंख्या का प्रमाण वही है, या उससे जादा ? अत: मागास वर्ग समुहों की जनगणना होना लाजमी है. परंतु यह प्रश्न भी, न्यायालय की प्रतिक्षा में अटका हुआ है.‌ न्याय कब ??? *वही सवर्ण समुहों यह अल्पसंख्यक होने पर भी, भारत के शासक बने हुये है.‌*  अत: यह भेदनीति (?) *"द्वि-राष्ट्र सिध्दान्त"* को, जन्म देते नज़र आती है. इस संदर्भ में डॉ. आंबेडकर कहते हैं कि, *"हमारे भारत देश में, (सही कहें तो) दो अलग अलग राष्ट्र समायें हुयें है. एक सत्ताधारी वर्ग का राष्ट्र और दुसरा जिस समूदायों पर, शासन किया जा रहा है, उस समुदायों का राष्ट्र. सभी के सभी मागासवर्ग समुदाय, यह दुसरे राष्ट्र के लोग है."* (राज्य सभा, नयी दिल्ली दिनांक ६ सितंबर १९५४) हमे यह बोल बहुत कुछ बयाण कर गया है.

     गुजरात विशेष न्यायालय ने, *"नरोदा (गुजरात) ग्राम दंगल प्रकरण"* में, सभी आरोपीयों को निर्दोष बरी किया है. फिर जो ११ लोक दंगल में मारे गये थे, उन सभी को मारनेवाला सैतान कौन है ?  इस केस में मोदी सरकार की तत्कालिन मंत्री माया कोडवानी तथा बजरंग दल का बाबु बजरंगी सहित ६७ आरोपी थे. विशेष न्यायालय के *न्यायाधीश एस. के. बक्षी* इनको को तो, भारत रत्न पुरस्कार देना चाहिए...! इतना महान कार्य किया है. मेरी स्वयं की केस भी मुझे याद कर गयी.  उच्च न्यायालय मुंबई नागपुर बेंच में *डॉ. मिलिन्द जीवने* विरूध्द *संविधान फाऊंडेशन - इ. झेड. खोब्रागडे* याचिका क्र. ३९४०/२०१९ यह केस *"भारतीय संविधान यह कानुनी किताब नही है. वह तो कानुनी दस्तावेज है. वह साहित्य नही है. अत: संविधान को साहित्य के श्रेणी मे लाना, यह भारतीय संविधान का अपमान है."* और "संविधान साहित्य सम्मेलन" पर, रोक लाने के लिए, मैने याचिका दायर की थी. परंतु न्यायाधीश द्वय *न्या. आर. के. देशपांडे / न्या. विनय जोशी* यह हमे ही पुछ रहे थे कि, *"वह सम्मेलन हुआ तो,  आप को क्या हानी हो सकती है...?"* और मेरी याचिका खारिज की गयी. क्या मैने वह याचिका, मेरे लाभ - हानी के लिए डाली थी. भारत के संविधान की गरिमा रखना, यह हर भारतीय नागरीक का कर्तव्य है. अगर *न्या. आर. के. देशपांडे / न्या. विनय जोशी* समान (?) ना-लायक (Not Qualified) लोग न्याय व्यवस्था में हो तो, न्याय व्यवस्था बदनाम होने की संभावना है. अत: ऐसे ना-लायक न्यायाधीशों की वापसी भी जरुरी है. सभी न्यायाधीशों के सभी न्यायालयीन निर्णयों की, समिक्षा भी होना चाहियें. ता कि, न्याय व्यवस्था की गरिमा बनी रहे. मा. सर्वोच्च न्यायालय के दो माजी सरन्यायाधीश *शरद बोबडे / रंजन गोगाई* इनका जिक्र करना जरुरी है. क्यौं कि, इन दो महान (?) माजी सरन्यायाधीशों ने, कौन से बडे तीर मारे है. *शरद बोबडे* तो एक मंदिर में, पुरी तरह से सोते हुये, पुजा कर गये. पुजा करना यह शरद बोबडे का वैयक्तिक प्रश्न है. परंतु न्याय व्यवस्था वे बैठे हो तो, पद का गरिमा या प्रोटोकाल भी देखना होता है. *रंजन गोगाई* महाशय ने तो सांसद बनकर, *"सरकार का भिखारी"* बनने में धन्यता मानी है. ऐसी कृतीशीलता हो तो, हमारी न्याय व्यवस्था का क्या होगा ?

     हमे यह सोचने के मजबुर होना पडा कि, *"न्यायालयीन कॉलोजीयम"* ना होता तो, और *"स्पर्धा परिक्षा"* में उन (?) न्यायाधीशों को बिठाया गया होता तो, वे चपराशी की भी परिक्षा पास होते, यह बडा संशोधन का विषय है. अत: न्याय व्यवस्था में सशक्त / मेरीट धारक न्यायाधीशों की नियुक्ती के लिए, *"न्यायाधीश नियुक्ती आयोग"* की बहुत जरुरी है. इस संदर्भ में, हमारे सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विचार करना बहुत जरुरी है. साथ ही हमारे निम्न दो प्रश्नो पर भी, स्वयं होकर दखल लेना जरुरी है. पहिला प्रश्न - *"भारत राष्ट्रवाद"* का है. दुसरा अहं प्रश्न - *"भारत राष्ट्रगान"* का है. क्यौं कि, यह दो प्रश्न भारत की गरिमा / देशभक्ति से जुडे हुयें है. साथ ही *"मंदिरो / खेती / औद्योगीक संस्था का राष्ट्रीयकरण भी"* एक बडा प्रश्न है. हमारे मा. सर्वोच्च न्यायालय का दायित्व *"वॉचडॉग"* (Watch Dog) का रहा है.‌ एवं उसका निर्वाहन भी जरुरी है...!

     भारत की आवाम *'धर्मवाद, जातवाद, देववाद, धर्मांधवाद"* इसमे उलझी हुयी, दिखाई देती है. देश गया भाड़ में...! वही भारत आज केवल एक *"देश (Country)"* है. वह आज तक *"राष्ट्र (Nation)"* नही बन पाया है. जो बडा ही खेद का विषय है. डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर *"भारत राष्ट्रवाद"* संदर्भ में कहते हैं कि, *"भाषा, प्रांत भेद, संस्कृति आदी भेद-नीति मुझे मंजुर नही. प्रथम हिंदी, बाद में हिंदु या मुस्लिम यह विचार भी, मुझे स्वीकार्य नही है. सभी नें प्रथम भारतीय, अंततः भारतीय, और भारतीयता के आगे कुछ नहीं, यही मेरी भुमिका है."* (मुंबई - दिनांक १ अप्रेल १९३८) अर्थात उनके यह शब्द, भारत देश आजाद होने के पहलें के है. इस कहते है - *"सही देशभक्ति."* भारत आजाद होकर ७५ साल हो चुके है, वही प्रजासत्ताक होकर ७२ साल...! फिर भी हम *"भारतीय"* नही बन पायें है. हर व्यक्ति की अपनी पहचान, धर्म - जाति से होती है. इतने साल गुजरने के बाद भी, किसी भी केंद्र सरकार ने, *"भारत राष्ट्रवाद मंत्रालय एवं संचालनालय"* की बुनियाद नही की.‌ *"ना ही भारतीय बजेट में कोई प्रावधान...!"* सरकारें बातें बहुत करती है.‌ पर इस विषय पर मौन है. देव - धर्मवाद पर, करोडों का अपहार हो रहा है. कांग्रेसी बच्चा *राहुल गांधी* को स्वयं के देश का संविधानिक नाम *"India, that is Bharat"* (Art. 1) तक मालुम नहीं.‌ वो असंवैधानिक नाम *"हिंदुस्तान"* कहता है. हिंदु का अर्थ > हिन + दु > हिन = निच, दु = प्रजा > हिंदु = निच लोक > *हिंदुस्तान = निच लोगों का देश.* यह कहकर हमारे देश की तोहिम भी...!!!

     दुसरा महत्वपुर्ण प्रश्न - *"भारत राष्ट्रगान"* का है. *"जन गन मन अधिनायक जय हे, भारत भाग्य विधाता (?)"* भारत के जन - गन - मन  का, भाग्य विधाता कौन है...??? जिस का जय जयकार हो...! यह अहं प्रश्न है. वह गीत अंग्रेज़ी शासक *जार्ज पंचम* की महिमा बखाण करता है. फिर भी वह गीत, हम गुला जा रहे है. क्या अंग्रेज़ो के गुलामी का, यह प्रतिक नहीं है ? हां, यह भी सच है कि, *"गोरे अंग्रेजों ने देश छोडा है. वही काले अंग्रेजों का शासन चल रहा है."* वही दुसरा गीत *"वंदे मातरम्"* भी, भारत देशभक्ति का प्रतिक नही है.‌ वह गीत तो, *"दुर्गा देवी की सुंदरता"* की महिमा बखान करता है. अत: *"सार्वभौम, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकशाही, गणराज्य भारत"* के लिए, हमें अलग से *"देशभक्ति राष्ट्रगान"* की रचना कराना, बहुत आवश्यक है.

       भारत के *"मंदिरो का राष्ट्रीयकरण"* करना, भारत को आर्थिक मजबुती के लिए  आवश्यक है. मंदिरो की चल - अचल संपत्ति का उपयोग, राष्ट्र के हित में होना जरुरी है. *"खेती की समस्या"* भी भारत के लिए एक बडा आवाहन है. अत: *"खेती के साथ साथ औद्योगीक संस्था का राष्ट्रीयकरण"* भी होना, भारत के सही हित में होगा.‌ ता कि, *"पुंजीवाद"* को, देश से खत्म कर सके. जो भारत के लिए एक शाप है. भारत में *"ब्राम्हणशाही"* का बोलबाला है. अत: यह भारत की एक बडी समस्या है. किसी भी ब्राम्हण समुदाय के भावना को, आहत करने की मेरी मंशा भी नही है. इस संदर्भ में, डॉ. आंबेडकर जी बोल बताना चाहुंगा. वे कहते है कि, *"ब्राम्हणशाही इस शब्द का अर्थ स्वातंत्र, समता एवं बंधुता इन तत्वों का अभाव, यह व्याख्या मुझे अभिप्रेत है. इस अर्थ से, उन्होने सभी क्षेत्र मेंं, कहर मचाया है. और ब्राम्हण उसके जनक भी रहे है. परंतु यह अभाव, अब ब्राम्हण वर्ग के सिमित नही रहा. इस ब्राम्हणशाही का संचार, सभी वर्ग में फैला हुआ है. और उन्होने उन वर्गों के, आचार - विचारों को नियंत्रीत भी किया है. यह एक सत्य भी है.‌"* (मनमाड, दिनांक १२ फरवरी १९३८) भारत की मिडिया, कई क्षेत्र के ब्राम्हण वर्ग सें मेरी अच्छी मित्रता है. उनके विवाह आदी कार्यक्रमों का मुझे निमंत्रण भी रहता है. ना ही उन्होने मुझे हानी पहुचांई है. *बल्की हमे हमारे अपनों से ही, अकसर बडी हानी मिल जाती है...!* यह मेरी भावना देश के समर्पित है.‌ जय भीम...!!!


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*(भारत राष्ट्रवाद के समर्थक)*

नागपुर, दिनांक ३० अप्रेल २०२३

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