Monday 28 February 2022

 ✍️ *दलित - दलित साहित्य से लेकर आंबेडकरी - बौध्द साहित्य तक : डा. अम्बेडकर वैचारिक चिंतन ...!*

   *डा.‌ मिलिन्द जीवने 'शाक्य'* नागपुर १७

राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल

मो.न. ९३७०९८४१३८ / ९२२५२२६९२२


     पिछले कुछ दिन पहले मेरे व्हाट्सएप पर, कुछ लोगों ने *"दलित साहित्य"* संदर्भ में, *प्रा.‌ शैलजा पाईक*, जो सिनसिनाटी विश्वविद्यालय मे पढाने का जिक्र है, उनका लिखा एक लेख मुझे भेजा गया. सदर लेख के लेखिका ने, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर साहब के संदर्भ कोट किये है. इस लेख के पहले मैने, कालानुरुप डॉ. आंबेडकर साहेब के संदर्भ देते हुये, *"आंबेडकरी - बौध्द साहित्य"* की वकालत की थी. परंतु सदर लेखिका ने, आंबेडकर साहेब के सन १९३० - ४० साल के संदर्भ देकर, बस *"दलित - दलित साहित्य"* की दलिल दी. अब सवाल यह है कि, *"हमारी जो मुव्हमेंट है, क्या उसे भी हम "दलित मुव्हमेंट" कहा जाएं या नही? वो आंबेडकरी मुव्हमेंट नही है.‌"* यह कहा जाए.‌ क्यौ कि, उनके विशेष नजरों मे, *"दलित यह समुहवाचक शब्द है. वह जातीवाचक या व्यक्तिवाचक शब्द नही है. सामाजिक एवं राजनीतिक कार्य का अविभाज्य घटक है.* मै इस लेख का उत्तर, मराठी भाषा में ही लिखना चाहता था. परंतु भारत के जादातर बहुसंख्यक लोगों के जानकारी के लिए, वह हिंदी मे लिखना, मैनै वह उचित समझा. वैसे ही एक माजी सनदी अधिकारी *इ. झेड. खोब्रागडे* इन्होने भी, अपना अलग सुपर - डुपर दिमाख लगाकर, *"संविधान साहित्य"* नाम से, अपनी अलग दुकानदारी खोलने की, एक हिन चेष्टा की थी. उस साहित्य का कडा विरोध, मैने *(डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य')* किया था. बाद में उस साहित्य पर, कोई विशेष ऐसी चर्चा हमे दिखाई नही दी. हमे यह भी समझना बहुत जरूरी है कि, *"भारत का संविधान"* यह कोई साधारण *"कानुनी किताब"* (Legal Book) नही है. वह भारत का सर्वोच्च / बहुमुल्य *"कानुनी दस्तावेज़"* (Legal Documents) है. उसे साहित्य के श्रेणी मे लाकर, लिमिटेड करना या पदावनत करना, यह एक बडा गुन्हा है. साहित्य यह अच्छा भी होता है, या गंदा भी...! *"अस्विकार साहित्य का निषेध भी होता है, या निषेध के रुप में, जलाया भी जा सकता है...!"* अत: संविधान को साहित्य कहना, वो देश से गद्दारी है. वो देशद्रोह भी है...!

   ‌   *प्रा.‌ शैलजा पाईक* इन्होने *"दलित - दलित साहित्य"* इस शब्द के मान्यता के लिए, डॉ. आंबेडकर साहेब का *"लिखाण या मुव्हमेंट"* संदर्भ कोट किया है, वे संदर्भ सन १९३० - १९४० दरम्यान के दिये गये है. और शैलजा ने स्वयं यह माना भी है कि, *"अंग्रेज़ी और मराठी संस्करण में, 'डिप्रेस्ड क्लासेस' / 'अस्पृश्य' (अछुत) / 'दलित' / 'बहिष्कृत' इन शब्दों का उल्लेख बताया है."* इसके अलावा उन्होने यह कहा भी है कि, *"हालाकी डॉ. आंबेडकर इन्होने 'दलित' शब्द का उल्लेख विरले ही किया है."*  लेकिन मुझे प्रा. शैलजा पाईक के तिन बयान बडे खटके है. *एक* है - "दलित शब्द अपने सामाजिक - राजनीतिक कार्य से अविभाज्य है. और इसमे दलितों के लिए, राजनीतिक कारवाई को प्रभावी ढंग से सुगम बनाना." *दुसरा* है - दलित शब्द विद्वता और अन्य लेखन में, अच्छी तरह से स्थापित है." *तिसरा* है -  "दलित शब्द अछुतों के समुदायों के कुछ सदस्यों द्वारा, समानता, न्याय और अधिकारीता के सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ में चुना गया था." और उन्होने अपने लेख में, *मि.‌ क्रिश्र्चियन ली नोवेट्ज* इनके एक लेख का, संदर्भ देकर उनका आभार भी माना है. साथ में प्रा. शारदा पाईक इन्होने ५ अप्रेल १९४६ को *"अखिल भारतीय दलित फेडरेशन"* (AIDF) का उल्लेख बता कर, अंग्रेजो को एक *"खलिता"* (याचिका) भेजने का जिक्र किया है. साथ ही शारदा जी ने यह भी कहा है कि, *"बहुत से लोग इस शब्द का, प्रयोग करना नही चाहते है. क्यौ कि, एक बहुत छोटा अल्पसंख्यक, दलित के रूप में अपनी पहचान रखता है. और कई लोग सोचते है कि, समय बदल गया है. और वे दलित नही है. यानी अब वे उत्पिडित और टुटे हुये नही है. उनकी नजर में, दलित ये 'अछुत, महार, चांभार की तरह, एक अपमानजनक शब्द है."* अर्थात मैने प्रा.‌‌ शारदा पाईक के लेख का, समस्त सार यहां उदबोधित किया है.

       प्रा.‌ शारदा पाईक के सदर लेख की, चिकित्सा करना मुझे आवश्यक हो गया है.‌ शारदा पाईक ने, डॉ. आंबेडकर के संदर्भ में, 'दलित' इस *शब्द प्रयोग कालखंड* यह सन १९३० - १९४० का बताया हुआ है.‌ *"दलित साहित्य"* यह साहित्य विषय होने के कारण, डॉ. आंबेडकर इनकी *"पत्रकारिता"* से ही मेरा उत्तर देना बहोत उचित समझ रहां हुं. बाबासाहेब की "पत्रकारिता क्षेत्र" का प्रवास - *बहिष्कृत भारत* (१९२७) > *मुकनायक* (जनवरी १९३०) > *जनता* (दिसंबर १९३०) > *प्रबुध्द भारत* अर्थात डॉ. आंबेडकर साहेब ने,  *"दलित"* नाम से कोई पत्रिका नही निकाली और वे हमें *"प्रबुद्ध भारत"* की ओर ले जा रहे है. अब सामाजिक आंदोलन के संदर्भ में - दिनांक २० मार्च १९२४ को *"बहिष्कृत हितकारणी सभा"* > १९२७ को *"समता सैनिक दल"* >  फिर बाबासाहेब हमे धम्म की ओर ले जाते है.‌ *"भारतीय बौध्द जनसंघ"* (जुलै १९५१) > *"दि बुध्दीस्ट सोसायटी ऑफ इंडिया "* (४ अक्तूबर १९५४) उसका पंजीकरण ४ मई १९५५ करते है. और १४ अक्तूबर १९५६ को, वे *"बौध्द धर्म की दीक्षा"* लेते है.‌और हमे भी बुध्द की ओर ले जाते है. अब हम बाबासाहब का राजनीतिक प्रवास देखेंगे.‌ *"इंडिपेंडंट लेबर पार्टी"* (स्वतंत्र मजुर पक्ष - अगस्त १९३६) > *"ऑल इंडिया शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन"* (अप्रेल १९४२) दलित फेडरेशन (IDF) नही है. शायद गलती से वह नाम लिखा गया हो. *"रिपब्लीकन पार्टी ऑफ इंडिया"* (भारतीय प्रजासत्ताक दल - १ जुलै १९५६) और *"डॉ. बाबासाहेब, ०६ दिसंबर १९५६"* को, हमे छोडकर जाते है. फिर ३ अक्तूबर १९५७ को *"रिपब्लीकन पार्टी ऑफ इंडिया"* की रितसर घोषणा की जाती है.

      डॉ. आंबेडकर साहेब सन १९३५ में, येवला में *"धर्मांतर"* की घोषणा कर, १४ अक्तूबर १९५६ को, लगबग *"२१ साल के अंतराल"* में, चिरंतन अनुभव से, हमे बुध्द का दामन थाम देते है.‌ और बाबासाहब हमें *"बाईस प्रतिज्ञा"* भी देते है. हमे उस का अनुकरण करना, यह हमारा दायित्व भी है.‌ बाबासाहब उनके मुंबई दादर स्थित घर का नाम, *"राजगृह"*(१९४०) बुध्द विचारों पर रखते है.‌ और *"दि पिपल्स एज्यूकेशन सोसायटी"* की बुनीयाद भी रखते है. सदर संस्था द्वारा स्थापित, वो कॉलेज का नाम भी - *"मिलिन्द कॉलेज"* औरंगाबाद, *"सिध्दार्थ कॉलेज"* मुंबई रखते है. किसी *"दलित एज्यूकेशन सोसायटी / दलित कॉलेज"*  इन शब्द से नही है. सन १९४७ को भारत आजादी मिलने के बाद, *"झेंडा कमेटी"* मे रहते हुये *"अशोक चक्र"* और चार दिशाओं की ओर दहाड करनेवाला शेर - *"चक्रवर्ती सम्राट अशोक की विरासत,"* *"भारत की राजमुद्रा"* अपने देश‌ को देते है. दिनांक ४ दिसंबर १९५४ को रंगुन (बर्मा - म्यानमार) में, *"इंटरनेशनल बुध्दीस्ट कॉंफरंस"* को सहभाग लेकर, *"Buddhist Movement of India"* की, हमे *"ब्लु प्रिंट"* देते है. वहां वे *दो मुद्दों* पर, हमारा लक्ष केंद्रीत करते है.‌ *पहला* मुद्दा है - "By publishing the Buddhist Gospel." *"दि बुध्दा एंड हिज धम्मा"* यह ग्रंथ लिखकर, उस की पुर्ती करते है. *दुसरा* अहं मुद्दा है - "Introducing a ceremony for conversation to Buddhism." *"बौध्द धर्म का मास कन्व्हर्शन"* लेकर, उस की पुर्ती १४ अक्तूबर १९५६ को, वे पुर्ण करते है.‌ और बाबासाहब की आखरी घटना बहुत ही महत्वपुर्ण है.‌ वह घटना है - *"४ दिसंबर १९५६ का, आयु. एस.‌ व्ही. कर्डक इनको लिखा गया पत्र."* वह पत्र साधारण पत्र नही है. शायद बहुत कम ही लोगों को, इसकी जानकारी होगी. उस पत्र मे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर इन्होने *"बौध्द विधी से विवाह"* करने की, *"बौध्द विधी"* बतायी है. उस में बाबासाहब कहते है कि, *"बौध्द पध्दति के विवाह में, न तो हवन होता है. और न ही सप्तपदी. इस प्रकार के विवाह संस्कार का सार तत्व इस बात में है कि, एक नव निर्मित मिट्टी का घडा शुध्द जल से भरकर, वर और वधु के बिच में एक स्टुल रख दिया जाए.‌ इस घडे के दोनो ओर, वर और वधु खडे हो जाए.‌ और एक कच्चे धागे को, घडे के पानी में डुबो दिया जाए.‌ और एक एक सिरा प्रत्येक को, अपने हाथों में पकड लेना चाहिये. किसी एक ने वर और वधु को, त्रिशरण / पंचशील देना चाहिये. और महामंगल सुत्त का पठन करना चाहिये. इस अवसर पर, वर और वधु को श्वेत वस्त्र परिधान करना चाहिये. "*

      डॉ.आंबेडकर साहेब का लिखाण हो या भाषण हो, उनका अभ्यास हो या संदर्भ भी हो, वो *"कालानुसापेक्ष"* होना चाहिये. परंतु अधुरे ज्ञान पर, जब कोई लेखक बाबासाहब का मुल्यमापन करता हो तो, वह केवल *डॉ. आंबेडकर साहेब* इन पर अन्याय नही है. परंतु वो‌ *"देश, समाज एवं‌ व्यक्ती,"* इनकी दशा और दिशा को असर करता है. *प्रा. डॉ. यशवंत मनोहर* इनके लिखाण मे, कार्ल मार्क्स है, महात्मा फुले है, केशवसुत भी है. महात्मा फुले जी पर लिखाण को, हम समझ सकते है. उन्होने यशोधरा पर लिखाण किया है, रमाई पर लिखाण किया है, बाबासाहब आंबेडकर साहेब पर भी लिखाण किया है. इस लिये हम उनको *"सच्चा आंबेडकरी - बौध्द साहित्यिक"* कहना चाहिये या तो कोई, *"व्यावसायिक साहित्यिक"* कहना चाहिये ? (Commercial Literal) क्यौ कि, उनकी बांधिलकी एक विचार नही है.‌ मेरे खयाल से, यशवंत मनोहर यह पुर्णत: आंबेडकरी साहित्यिक नही है.‌ वे तो पुर्णत: व्यावसायिक साहित्यिक है. *प्रा. रावसाहेब कसबे"* इन्होने तो, मोहनदास गांधी विचारों को, डॉ. आंबेडकर विचारों से जोडने की असफल‌ कोशिश की.‌ इस संदर्भ में, मैने पहले ही एक लेख लिखा है. *शरणकुमार लिंबाळे* उन्हे *"सरस्वती पुरस्कार"* लेने में, बडा गर्व महसुस होता है. उपर से *"दलित साहित्य"* की बडी वकालत...! *"प्रा. दिपक खोब्रागडे* इनको तो, कट्टर जातीयवादी - *"गिरिश गांधी"* के बिना, साहित्य कार्यक्रम लेना संभव ही नही लगता...! गिरिश गांधी के और दोस्त है, *प्रा.‌ यशवंत मनोहर और इ. झेड. खोब्रागडे*...! क्या करे, *"विशेष अर्थ प्रयोजन"* संबंध का विषय है. *"डॉ. बाबासाहब आंबेडकर पुरस्कार"* पाने का भी विषय है...!!! मेरा कहने का तात्पर्य यह है कि, हमारी *"एक दिशा"* बिलकुल निश्चित हो. उस में कोई, भटकाव ना हो...!

       *"दलित - दलित साहित्य"* इस विषय विरोध संदर्भ में, मेरे *(डॉ. मिलिन्द जीवने)* कई बार *"विचार युध्द"* हुये है. और मैने उस विरोध में, लिखाण भी किया है. और अंतत: मेरे नाम के पिछे *"शाक्य "* यह उपनाम लगा दिया.‌ और *"दलित - दलित साहित्य* शब्द की वकालत करनेवालो कों, खुली चुनौती दी कि, अगर *"दलित"* यह शब्द *"सन्मान जनक"* शब्द हो तो, उन्होने अपने नाम के पिछे, वे लोग *"दलित"* उपनाम लिखे.‌ जैसे कि - शरणकुमार लिंबाळे 'दलित' / मनवर - धनविलय 'दलित' / कांबळ 'दलित' / कसबे - खोबागडे 'दलित'......! दलित इस शब्द का समर्थन करना हो तो, पुर्णत: कृतीशील बनो.‌ हमे दलित उपनाम नही चाहिये.‌ इस लिए तो हम, अपने नाम के पिछे *"शाक्य / गौतम / भीम / आंबेडकर / सिध्दार्थ....!"* इस प्रकार के उपनाम लिख रहे है.‌ मित्रो, हमे *"आंगलावे / भोगलावे,"* इस प्रकार की दुष - प्रवृत्ती / विचारों से, हमारे सच्चे मिशन को बचाना है.‌ तभी तो हमारा *"आंबेडकरी - बौध्द मिशन* यह सशक्त होगा. अन्यथा वह बिलकुल नही..! क्यौं कि, सु-विचारों से ही क्रांती का उदय होता है.‌..! *"देश‌ / समाज / व्यक्ती"* में परिवर्तन आता है...!!!


(नागपुर‌, दिनांक २८ फरवरी २०२२)

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* *डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य'* नागपुर १७

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