✍️ *सरकारी कर्मचारीयों (रिश्वतखोर) पर सर्वोच्च न्यायालय की बडी गाज़ : कोर्ट में मुकदमा दायर कर सकते है !*
*डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७
राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल
एक्स व्हिजिटिंग प्रोफेसर, डॉ बी आर आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ महु म प्र
मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
सर्वोच्च न्यायालय के *न्या. भुषण गवई / न्या. पी. एस. नरसिंहा* इनकी द्वी खंडपीठ ने, *"रिश्वतखोर सरकारी कर्मचारी वर्गों"* के मामलों में, (विजय राजामोहन इस अधिकारी पर मद्रास उच्च न्यायालय की अपिल) एक बडा ऐतिहासिक फैसला दिया है. सदर केस *"दंड प्रक्रिया संहिता धारा १९७* तथा *"भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम धारा ९७"* से जुडी हुयी है. यह फैसला *"देश के सामने सभी समान ही है"* इस संविधानीक विचारों को इंगित करता है. संविधान के सामने *"चाहें वो कोई आम आदमी हो / चाहें वो कोई खास आदमी हो, वे सभी एक समान ही है."* सरकारी कर्मचारी वर्ग पर मुकदमों को देखकर, कई बार लगता रहा कि, कानुन यह भेदभाव कर रहा है. और *"कुछ (?) अनैतिक शक्तीयां,"* उस भ्रष्टाचारी अधिकारीयों को बचाने का, बहुत प्रयास कर रही है. परंतु मा सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले ने, *"सरकारी कर्मचारी वर्ग पर केस चलाने के मामलों में दिया गया बडा फैसला,"* शायद मिल का पत्थर साबित हो सकता है. ज्यादातर सरकारी कर्मचारी भ्रष्टाचार में लिप्त होते है. उनके छपडने पर भी, उनको किसी बात का भय दिखाई नहीं देता. और उन्हे उनके *"आकां वर्ग"* बचा लेंगे, यह उम्मिद भी होती है. अत: सरकार कर्मचारी वर्ग मगराये हुये भी दिखाई देते है. अत: नागरिक वर्ग को भी अब सचेत होना बहुत जरुरी है.
भारत में सत्ता व्यवस्था हो या, प्रशासन व्यवस्था हो या, *"न्याय व्यवस्था भी क्यौं ना हो"* आम आदमी का विश्वास, यह उठता जा रहा है. मेरी स्वयं की अपने ही केस *(Dr. Milind Jiwane vs Sanvidhan Foundation Nagpur Through its president E. Z. Khobragade / Mrs. Rekha Khobragade WP No. 3940/2019)* का उदाहरण लो. *"भारत का संविधान"* यह कोई *"कानुनी किताब (Law Book) ना होकर, वह तो एक कानुनी दस्तावेज (Legal Documents) है."* किताब यह तो *"साहित्य "* (Literature) हो सकता है. परंतु *"दस्तावेज"* (Documents) यह साहित्य कभी नहीं हो सकता. साहित्य यह अश्लिल भी हो सकता है. साहित्य को जलाया भी सकता है. अत: इस कारणवश मेरी राष्ट्रिय संघटन *"सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल"* द्वारा, पुर्व प्रशासकीय अधिकारी *इ. झेड. खोब्रागडे* एवं टीम ने, दीक्षाभूमी नागपुर मे आयोजित *"संविधान साहित्य संमेलन "* का, जोर शोर से विरोध किया था. जब आयोजन समिती द्वारा, हमारे मांगो की दखल लेने से मना करने पर, मैंने स्वयं *"मुंबई उच्च न्यायालय नागपुर खंडपीठ में याचिका क्र. ३९४०/२०१९"* यह याचिका दायर की थी. वह याचिका दिनांक ७ जुन २०१९ को, *न्या. रवि के. देशपांडे / न्या. विनय जोशी* इनके बेंच के सामने लगी थी. मेरी ओर से सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकिल *एड. चेतन बैरवा* तथा *एड. बी. बी. रायपुरे* यह दो वकिल पैरवी कर रहे थे. तब न्यायाधीश महोदय ने मौखिक रुप से पुछा कि, *"संविधान साहित्य सम्मेलन हुआ तो, आप को आपत्ती क्या है ? आप के मुलभुत अधिकारों का, यहां हनन दिखाई नहीं दे रहा है."* और मेरी याचिका खारीज की गयी. यहां सवाल था कि, *"क्या मैं उच्च न्यायालय में, मेरे मुलभूत अधिकारों के हनन के लिये, वह याचिका दायर की थी ?"* अरे भाई, मैने संविधान की रक्षा करने के लिये याचिका दायर की थी. *"संविधान की रक्षा करना"* भारत के हर नागरिक का दायित्व है. और उच्च न्यायालय हमे *"मुलभूत अधिकार"* पुछ रहा था. इस कारणवश *नयी दिल्ली* के जंतर मंतर पर देशद्रोही लोगों ने, *"भारत का संविधान जलाया था."* अत: इसके दोषी वह *"दोनो न्यायाधीश और इ. झेड. खोब्रागडे"* भी है. ऐसे *"ना-लायक (Not qualified)"* लोग हमारे देश में हो तो, आतंकवादी लोगों का हौसला बुलंद हो जाएगा. अत: लगता यह है कि, *"कोलोजीयम सिस्टम"* ना होती तो, *न्या. रवि देशपांडे / न्या. विनय जोशी* समान लोग, कभी *"चपराशी वर्ग की स्पर्धा परीक्षा पास ना हुये होते."* तो न्यायाधीश बनना तो बहुत दुर की बात है. और ऐसे ही लोग *"हमारे मेरीट"* पर सवाल उठाते है. ऐसे कही निर्णय है कि, लोगों का न्याय व्यवस्था पर से विश्वास उठता जा रहा है. अब हम सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर चर्चा करेंगे.
सर्वोच्च न्यायालय के *न्या. भुषण गवई / न्या. पी. एस. नरसिंहा* इन्होने अपने ३० पृष्ठों के निर्णय में, कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं पर प्रकाश डाला है. वे बिंदु है - "लोकसेवकों को अपराधिक मामलों में *सीबीआय अन्य जॉंच एजेंसियो के पास, तिन महिनों का समय है.* इस में कानुनी सलाहों के लिये, एक महिने का विस्तार किया गया है. मुकादमा चलाने की अनुमती देने में देरी के लिये, उच्च न्यायालय / सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है. सरकारी अधिकारीयों के खिलाफ, *अपराधिक मामलों को रद्द करने का आधार नहीं बनेगा.* अनुमती देनेवाले किसी भी प्राधिकरण को, यह ध्यान रखना चाहिये कि, *लोग कानुन के शासन में विश्वास करते है.* यह देरी होने पर कानुन पर का विश्वास, शासन / न्याय प्रशासन में दाव पर लगा हुआ है." आरोपों के निर्धारण प्रक्रिया के बाधित संदर्भ में निर्णय कहता है कि, "आज्ञा के अनुरोध पर विचार करने में देरी कराकर, आज्ञा देने वाला प्राधिकरण तो न्याय की जांच को, अनुपयोगी बना देता है. ऐसा करने पर भ्रष्ट अधिकारी के विरुद्ध आरोपों को निर्धारीत करने की प्रक्रिया, कही हद तक बाधित होती है. ऐसी देरी सामाजिक जीवन में, भ्रष्टाचार की मौजुदगी के प्रती एक प्रणालीगत आत्मसमर्पण जैसी है. ऐसे मामलों से *भविष्य की पिढी भ्रष्टाचार को, जीवन का हिस्सा मानकर, ऐसे जीवन जीने की आदी होगी.* कर्मचारीयों पर जब मुकदमें चलते है तो, कही बार उनको सरकारी कर्मचारी होने का फायदा मिलते दिखा है. डिपटीमेंट धीमी चाल से चलती है. कही बार देखनो को मिलता है कि, फाईलें धुल खातें पडी है. अत: यह कृती ज्यादा देर तक चलना ठिक नहीं है." समय अवधी पर न्यायालय ने, सिमित अवधी का पालन करने को कहा है." उपरोक्त बिंदुओ पर प्रकाश डालकर सर्वोच्च न्यायालय ने, एक बडा क्रांतीकारी निर्णय दिया है. अत: हमें देखना है, इस निर्णय का क्या असर गिरता है ?
जय भीम !!!
----------------------------------------
▪️ *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य'*
नागपुर दिनांक २६ फरवरी २०२५