🎓 *सर्वोच्च न्यायालय के खाजगी संपत्ती से लेकरं मदरसा शिक्षा हक्क निर्णय पर एक संविधान आकलण !*
*डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७
राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल
एक्स व्हिजिटिंग प्रोफेसर, डॉ. आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ महु म. प्र.
मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
मंगलवार दिनांक ५ नवंबर २०२४. सर्वोच्च न्यायालय के सरन्यायाधीश *धनंजय चंद्रचूड* इनकी अध्यक्षता वाली ९ न्यायाधीश पुर्ण खंडपीठ के न्यायाधीश - *न्या. ऋषीकेश रॉय / न्या. जे. बी. पारदीवाला / न्या. मनोज मिश्रा / न्या. राजेश बिंदल / न्या. सतिष चंद्र शर्मा / न्या. ऑगस्टिन जार्ज मसिह / न्या. जी. व्ही. नागरत्ना / न्या. सुधांशु धुलिया* इन्होने *"जनहित में सभी खाजगी मालमत्ता अधिग्रहण"* को, ७:२ इस बहुमत से निर्णय देकर, इसके पुर्व *न्या. कृष्णा अय्यर* इनके अध्यक्षतावाली पीठ का निर्णय बदल डाला है. वही विरोध करनेवाले दो न्यायाधीशो में से *न्या. बी. व्ही. नागरत्ना* इन्होने अंशतः तथा *न्या. सुधांशु धुलिया* इन्होने उन सात न्यायाधीशों के मतो से, पुर्णतः असहमती जताई है. वही उत्तर प्रदेश के *"मदरसा शिक्षा हक्क कानुन"* को सरन्यायाधीश *धनंजय चंद्रचूड* इनकी अध्यक्षता तिन न्यायाधीश वाली खंडपीठ में, *न्या. जे. बी. पारदीवाला / न्या. मनोज मिश्रा* इन्होने, *"अलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को खारिज करते हुये, उस कानुन की वैधता यह कायम रखी है."* निश्चित ही वह दोनो ही निर्णय आनंद देने वाले रहे है. क्यौं कि, *"जमिन अधिग्रहण मामलों"* में ज्यादा तर सरकारों ने, भारत संविधान आर्टिकल ३९ (ब) का दुरुपयोग ही किया है. जो जमिन जिस उद्दोशों के लिये अधिग्रहण की गयी थी, उस जमिन पर *"कभी सत्ताधारी नेताओं ने / तो कभी पुंजीवादी लोगो ने,"* अपना अधिपत्य जमाया था. उद्देश की पुर्ती नहीं दिखाई दी. अत: वे भी कुछ केसेस न्यायालय में प्रलंबित है.
*"मदरसा शिक्षा हक्क कानुन"* के घटनात्मक वैधता को भी, *"अलाहाबाद उच्च न्यायालय"* ने अवैध ठहराया था. और लगबग १६ हजार मदरसा के १७ लाख छात्र वर्ग, उस निर्णय से पिडित रहे थे. उन्हे सरकारी स्कुलों में जाना बंधनकारक हुआ था. अत: सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय से राहत मिल गयी है. भारतीय संविधान के आर्टिकल १४ - *"समानता का अधिकार"* तथा आर्टिकल २५ - *"धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार"* का भी प्रश्न खडा हुआ था. यही नहीं *"रामजन्मभूमी - बाबरी मशीद विवाद प्रकरण"* में, सरन्यायाधीश *रंजन गोगोई* इनकी अध्यक्षता के पांच न्यायाधीश पीठ में, *न्या. शरद बोबडे / अशोक भुषण / धनंजय चंद्रचूड / एस. अब्दुल नजीर* इन्होने ९ नवंबर २०१९ को निर्णय देते समय, *"कोई नशीली भांग पी थी क्या ? या कोई बिन अकल के खेत में चरने गये थे क्या ?"* यह बडा प्रश्न है. तत्कालीन सरन्यायाधीश *रंजन गोगोई* पद से रिटायर्ड होते ही, राज्यसभा नियुक्त किये गये. सरन्यायाधीश *धनंजय चंद्रचूड* ने तो, *"अपना जम़िर ही बेंच डाला."* रामजन्मभूमी निकाल में कोई भी *"प्रायमा फेसी"* दिखाई नहीं देती. *"भावना के आधार"* पर वह निर्णय रहा है. यही नहीं सरन्यायाधीश धनंजय चंद्रचूड ने तो, वह निर्णय संदर्भ में हद ही तोड डाली. *"प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन्हे गणेश पुजा के लिये अपने घर बुलाना / रामजन्मभूमी निर्णय देने के लिये भगवान का सहारा लेना."* हम इसे क्या कहे ? निश्चित ही धनंजय चंद्रचूड यह न्यायाधीश बनने के लायक व्यक्ति नहीं है. *"अंग्रेज शासन काल सन १९१९ में ब्राह्मण वर्ग को, न्यायाधीश बनने पर पाबंदी लगाई गयी थी."* यही नहीं *"देवदासी प्रथा / नवविवाहिता शुध्दीकरण / चरक पुजा (शुद्र बली) / गंगादान प्रथा (शुद्र का लडका दान) / खुर्ची अधिकार (शुद्रो का खुर्ची पर बैठना मनाई) / शिक्षा का अधिकार ना होना"* इन सभी पर बंदी लाकर, *"मानव मुक्ति"* के सभी रास्ते खोले गये थे. हमें यह भी समझना होगा कि, *"मनुस्मृती"* (८ / २१ - २२) के अनुसार *"ब्राह्मण चाहें अयोग्य भी हो, उसे न्यायाधीश बनाया जाए. वर्ना राज्य मुसिबत में फसं जाएगा."* न्यायव्यवस्था में ब्राह्मण जाति न्यायाधीशों का बहुमत होना, क्या उसी का ही एक परिपाक है ? अत: *"कोलोजीयम व्यवस्था"* को हटाना होगा. और *"ज्युडिसियल नॅशनल कमीशन"* की स्थापना कर, मेरिट के आधार पर न्यायाधीशों की नियुक्ती होना चाहिए.
बुध्द काल के विचारविध *भर्तृहरी* / ब्राह्मण संघवाद के नायक *के. सुदर्शन* / कांग्रेस के पितामह *मोहनदास गांधी* इन्होने, *"भारतीय राजनीति को वेश्यालय"* की उपमा दी थी. अत: राजनीति में कार्यरत नेताओं को *"वेश्या"* (पुरुष वेश्या / स्त्री वेश्या) यह भी अर्थ निकाला जा सकता है. अगर वे मान्यवर आज जिवित होते, और *"न्याय व्यवस्था"* यह हालात देखी होती तो, उन्होंने उसे *"न्यायालय की जगह वेश्यालय"* यह जरुर संबोधन किया होता. क्यौं कि, हमारे न्याय व्यवस्था का दर्जा इतना निम्न हो गया है. *"वही प्राचिन भारत का इतिहास यह ब्राम्हणी गद्दारी का रहा है."* भारत में न्याय कहां मिलता है ? *"The court has given only the judgement but not justice."* (अर्थात : न्याय व्यवस्था यह निर्णय देती है. सही न्याय नहीं करती.) *न्या. मार्कंडेय काटजु* इन्होने भी कहा कि, *"Justice should not to be done but appeared to be done."* यह तो बडा ही मार्मिक विवेचन है. इंग्लंड बहुत बडे दार्शनिक *फ्रान्सिस बेकन* इन्होने बडे बोल न्यायाधीशो के लिये कहा कि, *"A much talking judge is like an ill turned cymbal."* (अर्थात - ज्यादा बोलने वाला न्यायाधीश ये बेसुरा बाजा जैसा है.) अत: यह सिख हमारी न्याय व्यवस्था के लिये, बहुत जरुरी होगी. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश *भुषण गवई* इन्होने गोवा में वकिल परिषद में कहा कि, *"अगर जनता का न्याय व्यवस्था पर विश्वास उड गया तो, जनता ये न्यायालय के बाहर न्याय मिलाने की ओर बढ जाएगी. अत: समाज में कानुन - सुव्यवस्था की परिस्थिती ना बिघडे इस ओर लक्ष केंद्रित करना जरुरी है."* यह शब्द बहुत कुछ बयाण कर जाता है.
सर्वोच्च न्यायालय का *"महाराष्ट्र राज्य का दल बदल निर्णय हो / अनुसुचित जाती - जनजाती आरक्षण निर्णय हो / एकल पद (Isolated Post) नियुक्ती का निर्णय हो / इलेक्ट्रॉनिक व्होटिंग मशीन - व्ही व्ही पॅड निर्णय हो / रामजन्मभूमी प्रकरण निर्णय हो / ज्ञानव्यापी मंदिर बनारस प्रकरण हो / इलेक्शन बांड का निर्णय हो"* ऐसे बहुत सारे केस पर, केवल *"निर्णय"* (Judgement) ही हुआ है. क्या *"सही न्याय"* (Justice) हो पाया है ? क्या *"दोषी व्यक्तीं यह दंडित"* हो पाया है ? क्या न्याय सिमित कालावधी में दिया जाता है ? क्या *न्यायाधीशों की नियुक्ती जनसंख्या आधार* पर हुयी है ? क्या *न्यायदान में मेरीट* दिखाई देता है ? ऐसे बहुत सारे प्रश्न उपस्थित होते है. किसी विद्वान ने बहुत खुब कहा है कि, *"Delay in justice is denied justice."* (अर्थात - न्याय करने में विलंब होना इसका दुसरा अर्थ न्याय का नकारना होता है.) अगर इस न्यायालय संदर्भ के लिखाण पर, कोई यह भी कह सकता है कि, *"Don't give unsolicited advice.* (Stop giving advice to people who don't ask for it.) परंतु प्रश्न फिर भी वही के वही अटका पडा है. *"The court has given only judgement but not justice"* (अर्थात - न्याय व्यवस्था ने केवल निर्णय दिया है, सही न्याय नहीं किया है.) जय भीम !!!
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नागपुर, दिनांक ६ नवंबर २०२४
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