🌹 *मेरे अपने चित्र शब्द...!*
*डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य'*, नागपुर १७
मो. न. ९३७०९८४१३८
युं इतना भी गुरुर ना करो अपने आप पर
बैसाखी का साथ कब पडे वो पता भी नहीं
हे हालात कब बदल जायेंंगे इस मुकद्दर में
तब ना कोई अपना होगा ये पराया मौसम में...
हम ने यें उगता हुआ सुरज देखा है
और श्याम में डुबता हुआ यें सुरज भी
दोनों का दृश्य स्वरुप एकसा ही रहा है
पर मानव के जीवन में वो एकसा नहीं...
आग अकसर सदींयों से बदनाम हुयी हैं
जलाने के वो उस अपने दृष्ट प्रवृत्ती में
पण मानव शरिर में भी एक आग होती है
जो वो जठराग्नी है जीवन दायी के रुप में...
कभी निर्णय करने में भुल होती रही है
तो कभी चयन करने में भी भुल होती है
उस एक भुल का परिणाम भयावह भी हो
सवाल तो शब्द निष्ठा - विश्वास का रहा है...
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नागपुर, दिनांक ७/०६/२०२४
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