Wednesday 28 August 2024

 🎓 *ऍट्रोसिटी कानुन - सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ती विशेष का सिधा उल्लेख ना हो तो, ऍट्रोसिटी कानुन अंतर्गत वह गुन्हा नहीं है ! तो क्या व्यक्ती विशेष का उल्लेख न कर जातियवादी गाली देने की, किसी उच्च वर्ण को छुट दे ?*

        *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७

राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल 

एक्स व्हिजिटिंग प्रोफेसर, डॉ बी आर आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ महु म प्र 

मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२


         सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश *जे. बी. पारडीवाला  / न्या. मनोज मिश्रा* इनके संयुक्त खंडपीठ ने, *"एस. सी / एस. टी. ऍट्रोसिटी कानुन"* के अंतर्गत मलयालम वृत्रपत्र संपादक *मि. शजन साकारीया* इन्हे अंतरीम जामिन  देते हुये, यह निर्णय दिया कि *"किसी व्यक्ती विशेष का सिधा उल्लेख ना हो तो, एट्रोसिटी कानुन के कठोर विषय अंतर्गत, वह गुन्हा नहीं हो सकता."* इस आदेश से मा सर्वोच्च न्यायालय में बैठे हुये, उन न्यायाधीशो की मानसिकता (?) दिखाई देती है. क्यौं कि, न्यायालय के इस निर्णय (?) सें, *"जातीयवादी आरोपीं"* को, जातियवादी गाली देने पर भी, *"छुटने का रास्ता"* भी मिल गया है. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पक्ष के मल्याळम विधायक *पी. व्ही. श्रीनिवासन* इन्हे *"माफिया डॉन"* कहने का यह प्रकरण है. वही सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय सुनकर, अभी अभी *"मागासवर्गीय आरक्षण"* संदर्भ में, सर्वोच्च न्यायालय के सरन्यायाधीश *धनंजय चंद्रचूड* इनके साथ अन्य छ: न्यायाधीश - *न्या. भुषण गवई / न्या. विक्रम नाथ / न्या. बेला एम. त्रिवेदी / न्या. पंकज मित्तल / न्या. मनोज मिश्रा / न्या. सतिश चंद शर्मा*  इनके खंडपीठ के, ६:१ निर्णय की याद आ गयी. और मैं उस दिन, समस्त दिन भर बहुत परेशान भी रहा हुं. अत: न्यायालयों में बैठे हुयें *"ब्राह्मण न्यायाधीशों के वैचारिक पात्रता पर भी, प्रश्न चिन्ह खडे हो गये है."* अगर न्यायालय नियुक्ती में, *"कोलोजीयम सिस्टीम"* यह ना होती तो, वे न्यायाधीश लोग *"किसी चपराशी पद की पात्रता परिक्षा"* भी पास हुये होते या नहीं ? यह भी बडा प्रश्न खडा करता है.क्यौ कि, कुछ विद्वत न्यायाधीश महोदय, जजमेंट में *"मेरीट"* की बात करते रहे है. क्या ब्राह्मण मां ही *"गर्भ मेरीट"* की अधिकारी है, अन्य वर्ग की मां नहीं ? यह प्रश्न है. फिर भारत देश में *"गद्दारी, मक्कारी, भ्रष्टाचार, अनेतिकता, भोगवाद"* आदि अ - मेरीट (?) बीज भी, *"ब्राम्हण मां"* ने ही रूजाये होंगे. अत: इस अवधारणा को उन्हे स्वीकार करना ही होगा. इस संदर्भ में *मनुस्मृती* का वचन (८/२१-२२) ही देना चाहुंगा. *"ब्राह्मण चाहें अयोग्य भी हो, उसे न्यायाधीश बनाया जाए. वरना राज्य मुसिबत में फसं जाएगा !"* क्या इस लिये न्यायालयों में, ब्राम्हण वर्ग का अधिपत्य दिखाई देता है ? एवं अन्य व्यवस्था में, *"ब्राह्मण वर्चस्व"* के कारण, देश का बंट्याधार भी...!

        *"मागास वर्गीय नोकरी का आरक्षण, यह संविधानिक अधिकार नहीं है."* यह एक *"सुप्रीम कोर्ट"* के जजमेंट (७ फरवरी २०२०) को हम भुलं गये है. *न्या. एल. नागेश्वर राव / न्या. हेमंत गुप्ता* इनके खंडपीठ ने, *मुकेश कुमार एवं अन्य* तथा *उत्तराखंड सरकार एवं अन्य* इस केस में, उपरोक्त निर्णय दिया गया है. *"Isolated Post Reservation"* - सर्वोच्च न्यायालय जजमेंट को तो, हम पुरी तरह भुलं गये है. अत: ब्राह्मण वर्ग की मानसिकता *व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व"* को देखकर, *"अंग्रेज सरकार के सन १९१९ कालखंड"* की यादें ताजा हो गयी. और *"गोरे अंग्रेजो का शासन"* ही अच्छा था, यह कहना होगा. कहां जाता है कि, *"तब ब्राह्मण वर्ग को न्यायाधीश बनने के लिये, बंदी लायी गयी थी."* और ब्राह्मण वर्ग का १००% नियंत्रण ब्रिटिशों ने २.५% पर लाया हुआ था. *"देवदासी प्रथा / नवविवाहिता का शुध्दीकरण प्रथा / चरक पुजा (शुद्र बली) / गंगादान प्रथा (शुद्र का पुत्र दान) / खुर्ची अधिकार प्रथा (शुद्र को अधिकार नहीं था) संपत्ती अधिकार प्रथा (शुद्र को अधिकार नहीं था)"* आदि पर भी पांबदी लगायी गयी. *"शिक्षा के दरवाजे"* सभी वर्ग के खुले किये गये थे. शासकीय सेवा में भारतीय आवाम को, नोकरी मिलने लगी थी. ब्राह्मण वर्ग ने *"अंग्रेजो के खिलाप जंग"* छेडने हेतु ही, सन १९२० में *"ब्राह्मण सभा"* / सन १९२२ में *"हिंदु महासभा"* / सन १९२५ में *"आरएसएस"* (RSS) की स्थापना, क्या इस कारणवश की गयी थी ? यह प्रश्न है. *कांग्रेस दल"* भी, वह ब्राम्हण वर्ग का ही प्रतिनीधी था. फर्क केवल *"नरम दल / गरम दल"* इतना ही था. ब्राम्हण धर्म ग्रंथ में, शुद्रों के साथ ही स्त्री वर्ग को भी, गुलाम माना गया था. उस संदर्भ का एक श्लोक -  *"क्रिया चरित्रं पुरुषस्य भाग्यम् | देवो न जानाति को मनुष्य: ||"* (अर्थात - स्त्रीयों की चरित्र को और मानव के भाग्य को, जानने के लिये तो, देवता भी समर्थ नहीं है. साधारण मनुष्य का तो कहना ही क्या ?)  दुसरा एक अन्य श्लोक है - *"त्वमर्ध सत्यधर्म रहस्यम् |"* (नारी का अब तक, आधा रुप ही सामने आया है.) मेरे स्कुल ही जीवन में, *"संस्कृत"* यह विषय पढाई में होने के कारण ही, मुझे भी संस्कृत भाषा समझने में सहजता रही है. अब सवाल हमारे अधिकारों का रहा है.

         *"रामजन्मभूमी प्रकरण"* में मां सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालिन सरन्यायाधीश *रंजन गोगोई* इनकी अध्यक्षता में अन्य चार न्यायाधीश - *न्या. शरद बोबडे / न्या. धनंजय चंद्रचूड / न्या. अशोक भुषण / न्या. अब्दुल नज़ीर* इनके *"गर्भ मेरीट"* (?) को हमने अच्छे से देखा है. *"बगैर किसी प्रायमा फेसी"* के आधार का (किसी ऐतिहासिक तथ्य बिना) वह निर्णय था. उन्हे *"न्यायाधीश"* कहने के बदले, *"मुर्खाधीश"* कहना ही जादा संयुक्तिक होगा !!! *"भारतीय संविधान"* के अनुच्छेद ३४० (ओबीसी वर्ग) / अनुच्छेद ३४१ (अनुसुचित जाती) / अनुच्छेद ३४२ (अनुसुचित जमाती) इस अंतर्गत *"जाती आरक्षण"* का ही प्रावधान किया है. *"आर्थिक आरक्षण"* का नहीं. वही नरेंद्र मोदी भाजपाई सरकार ने, *"आर्थिक आरक्षण"* को ही लागु किया गया, उस पर *"सर्वोच्च न्यायालय"* का रुख क्या ? यह प्रश्न है. भारत का संविधान यह *"सर्वोच्च न्यायालय को Watch Dog"* मानता है. *"संसद को कानुन बनाने का अधिकार है. परंतु कानुन की व्याख्या करने का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय को है."* संसद को कानुन की व्याख्या करने अधिकार नहीं है. संविधान निर्माता - *डॉ बाबासाहेब आंबेडकर* इन्होने *"संविधान में, यह Balance"* को बनाया रखा है. परंतु जब कोई अपने अधिकारों से, मुहं मोड ही लेता है, तब वह चिंता का विषय होता है. अत: आवाम को ही *"सत्य की खोज में लढाई"* लढनी होगी. और कहना होगा कि, *"जो जीता वह सिकंदर नहीं, मौर्य (मोरया) होता है. और जो वादे से / कृती से दुर भागता है, वो कायर होता है / गद्दार होता है."* बसं हमें अपने अधिकारों प्रति बहुत सजग रहना है. जय भीम !!!


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▪️ *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य'*

नागपुर, दिनांक २८ अगस्त २०२४

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