Saturday 27 April 2024

 🇮🇳 *राष्ट्रिय प्रतिक तिन शेर चिन्ह राजमुद्रा बदलने या किसी भी प्रकार की छेडखानी करनेवाले चुनाव आयोग से लेकरं भारतीय सरकार में बैठे ब्राम्हणवाद की राष्ट्रद्रोहीता...! क्या भारत की वॉच डॉग - सर्वोच्च न्यायालय स्वयं होकर इस संदर्भ में कोई सज्ञान लेगी ?* एक बडा सवाल.

  *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर ४४००१७

राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल 

एक्स व्हिजिटिंग प्रोफेसर, डॉ बी आर आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ महु म.प्र.

मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२


         प्रजासत्ताक भारत के *"चुनाव आयोग"* ने, लोकसभा चुनाव २०२४ के लिये, एक नया शिक्का (Stamp) *"प्रिसायडींग ऑफिसर"* को जारी किया है. और उस शिक्के (ठप्पा) में, मध्य भाग में रहनेवाला, राष्ट्रिय प्रतिक - *"तिन शेर की राजमुद्रा"* को हटाकर, वहां *"एम - M"* यह अक्षर को रखा है. अर्थात चुनाव आयोग की दृष्टीकोन से, M इस शब्द का अर्थ - *"मोदी या मनस्मृति"* इस अर्थ में लिया गया है या नहीं, इसका संदर्भ चुनाव आयोग ही देगा. और *"राजमुद्रा हटाने का मुख्य कारण भी...!"* वैसे चुनाव आयोग में बैठे हुये तिनो चुनाव आयुक्त *राजीव कुमार / सुखवीर सिंग संधु / ज्ञानेश कुमार* ये कितने *"लायक या ना-लायक"* है, इसका अंदेशा भारतीय आवाम को हो गया है. *"चुनाव आयुक्त से लेकर तमाम ED / CBI समान शासन एजंसीया, इनकी कृतिशीलता भी, दाग-हिन / निष्कलंक / इमानदार / निष्पक्ष / जबाबदेही"* कितनी रही ही ? यह भी भारतीय आवाम देख चुकी है. उन तमाम शासन एजंसीया की करतुते देखकर, मुझे‌ तो, प्राचिन काल के *"विषकन्या"* की याद आ गयी. विषकन्या का उपयोग, दुश्मनों को खत्म करने के लिये किया जाता था. अब हमारी सरकारी एजंसीया *"पुरुष विषकन्या"* हो गयी है. बाद में विषकन्या का स्थान,*"वेश्या"* ने ले लिया है. और भारतीय राजनीति *"वेश्या वृत्ती"* से अछुती नहीं रही. इसलिए प्राचिन भारत के विचारविद (?) *भर्तृहरी* / कांग्रेसी पितामहा *मोहनदास गांधी* / संघवादी नायक *पी सुदर्शन* इन्होने, भारतीय राजनीति को *"वेश्यालय"* की उपमा दी है. मेरी व्यक्तिशः *"प्राचिन इतिहास, निसर्ग, सृष्टी का निर्माण, आंतरराष्ट्रीय संबंध, संविधान - कानुन, अर्थव्यवस्था, समाजव्यवस्था, राजनीति, प्राचिन - अर्वाचीन - आधुनिक साहित्य"* इन विषयों में ज्यादा रुची होने से, मै उन विषयों का अध्ययन करते रहता हुं. अत: गुलाम भारत से लेकरं प्रजासत्ताक भारत तक का इतिहास और *"सिंध संस्कृति इतिहास, वैदिक काल, बुध्द काल, चक्रवर्ती सम्राट अशोक का कालखंड और अन्य कालखंड, प्रथम महायुध्द, द्वितीय महायुद्ध, १८५७ का उठाव, भारत आझादी, संविधान सभा डिबेट, झेंडा समिती का निर्णय, भारत की राजमुद्रा / प्रजासत्ताक भारत बनने के बाद की सत्तानीति"* इन तमाम विषयों के गहराई में जाना, मुझे बडा ही आनंद दे जाता है. अब हम राष्ट्रिय प्रतिकों पर चर्चा की ओर बढते है.

      *"भारतीय राजमुद्रा"* कहे या राष्ट्रीय प्रतिक - *"सिंहचतुर्भुज स्तंभ"* चक्रवर्ती सम्राट अशोक की सिंह राजधानी, *"सारनाथ"* (इसा पुर्व २५०) की याद दिलाती है. मेरा सारनाथ बहुत बार जाना हुआ है. अत: वह इतिहास, मैं फिर कभी बयाण करुंगा. उस राष्ट्रिय प्रतिक का *"भारत का प्राचिन इतिहास / वर्तमान भारत दोनों में विशेष स्थान रखता है. वह भारत के गौरव / साहस / शांती के उच्च सन्मान का प्रतिक है."*  भारत के अंतरीम प्रधानमंत्री *जवाहरलाल नेहरू* इन्होने, *"भारत संविधान सभा"* (Constituent Assembly - संसद नहीं) में, जुलै १९४७ को "राष्ट्रिय प्रतिक" का प्रस्ताव रखा था. और कहा था कि, *"अबेकस पर लगे पहिये को, हमारे नये राष्ट्रिय ध्वज के डोमिनियन के केंद्र में, पहिये का मॉडेल बनाया जाए. प्रतिक चिन्ह के लिये कमल यह आदर्श है."* और यह प्रस्ताव दिसंबर १९४७ को पारीत किया गया था. भारत का राजचिन्ह (राजकीय प्रतिक) यह चक्रवर्ती सम्राट अशोक के स्तंभ की अनुकृति है. यह मुलत: चार शेर है. जो चार दिशांओं की ओर, अपना मुंह खडे किये हुये है. निचे एक गोल आधार है. जिस पर हाथी, घोडा, एक बैल और एक सिंह बने हुये है. जो दौडती मुद्रा में है. ये गोलाकार आधार खिले हुये, उलटे लटके हुये कमल के रुप में है. *"हाथी यह शक्ति का / सिंह यह आत्मज्ञान प्राति का / बैल यह कडी मेहनत, दृढता का / घोडा यह वफादारी, गती और उर्जा का प्रतिनिधित्व करता है."*  उस प्रतिक के निचे, देवनागरी लिपी में *"सत्यमेव जयते "* अंकित है. जिसका अर्थ - *"सत्य की विजय होती है."* अशोक का चिन्ह यह *"भारत का राजकीय प्रतिक"*  है. *"अशोक चक्र"* में २४ तिल्लिया है. जो दिन के २४ घंटो का प्रतिनिधित्व करता है. और यह भी कहता है कि, समय को प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता. यह जीवन में सदैव आगे बढने की हमें प्रेरणा देता है.  *"चार दिशांओं का शेर (सिंह) शक्ति, साहस, आत्मविश्वास और गौरव का प्रतिक है."* यह हमारे संस्कृति का, शांति का, सबसे बडा प्रतिक माना गया है. *"भारत के राष्ट्रपति की भी, यह राष्ट्रिय प्रतिक अधिकारीक मुहर है."* यह प्रतिक माध्यम से, आंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अनुमोदीत है.

       हमारे *"चुनाव आयोग"*  के तिनों आयुक्त महाशयों ने, उस *"राष्ट्रिय मुद्रा"* को, लोकसभा चुनाव २०२४ में कार्यरत *प्रिसायडिंग ऑफिसर* के ठप्पे (शिक्का) से हटाकर, उनके *"ना-लायक"* होने का, अपना सही परिचय दिया है. और अब सवाल तो, हमारे देश का *"वॉच डॉग"*  अर्थात *"सर्वोच्च न्यायालय"* के स्वयं सज्ञान लेने का है. या सर्वोच्च न्यायालय भी, क्या घास चरणे को जाएगी ? यह अहं प्रश्न है. हमने *"रामजन्मभूमी प्रकरण"* में, सर्वोच्च न्यायालय का मेरीट देखा है. बगैर प्रायमा फेसी मेरीट से, वह निर्णय रहा है. *"इव्हीएम/ व्हीव्हीपॅट प्रकरण"* यह बहुसंख्य जनता की मांग रही है. और वह निर्णय भी ??? *"हमारे राष्ट्रिय प्रतिकों से, छेडछाड करने का अधिकार, किसी को भी नहीं है. प्रधानमंत्री को भी नहीं."* यह राष्ट्रिय प्रतिक, भारत के राष्ट्रपति की अधिकारीक मुहर है. जो *"संविधान सभा "* (६ सितंबर १९४६ से २४ जनवारी १९५०) द्वारा स्वीकृती प्राप्त रही है. उसे चुनाव आयुक्त पद पर विराजमान, *"पांडु हवालदार"* सदृश्य बुध्दीहिन ब्राम्हणवादी, हटाने की चेष्टा करते हो तो, उन्हे उनकी सही औकात दिखाना, बहुत जरुरी है. वे चुनाव आयुक्त अपने घर की *"बहु - बेटी या पत्नी को,"* किसी के भी घर भेजें, ये चुनाव आयुक्त का पर्सनल विषय माना है. परंतु देश की *"संस्कृति और सभ्यता से खिलवाड,"* यह बिलकुल ही सहन नहीं किया जा सकता...! और प्रिसायडींग ऑफिसर के ठप्पे में, *"एम - M"* यह अंकित अक्षर *"मोदी या मनस्मृति"* के लिये भक्ति दर्शक हो तो, यह विषय बहुत ही शर्म का है...!!! यह हिन कृत्य, ब्राह्मणवाद का परिचय कराता है. डॉ बाबासाहेब आंबेडकर ने ब्राह्मणवाद के संदर्भ में कहा कि, *"ब्राह्मणशाही इस शब्द का अर्थ - स्वातंत्र, समता, बंधुता इन तत्वों का अभाव है. इस अर्थ से, इसने सभी क्षेत्रों में कहर मचाया है. ब्राह्मण वर्ग इसके जनक है.‌ फिर भी, यह अभाव अब केवल ब्राह्मण के सिमित ना होकर, इस ब्राह्मणशाही ने, सभी क्षेत्रों पर, अपना संचार किया है. उसने सभी वर्गों के आचार - विचारो को नियंत्रित किया है ‌ और यह निर्विवाद सत्य है."* (मनमाड, दिनांक १३ फरवरी १९३८)

        हमारे राष्ट्रिय प्रतिकों के साथ खिलावाड, ये केवल भाजपा शासन काल में ही नहीं हयी है, *"वह तो शुरुवात, कांग्रेस शासन काल में हुयी है."* मुझे याद है कि, तब मेरा विद्यार्थी काल रहा था. मेरे पिताजी सरकारी ग्रामीण स्कुल में, मुख्याध्यापक रहे थे. तब मेरे पिताजी के पास, पोष्ट ऑफिस का भी चार्ज हुआ करता था. दुसरे अर्थ में, वे पोष्ट मास्टर भी थे. तथा हमें मेरे मम्मी - पिता के परीवार से, हमें पत्र भी आया करते थे.‌ *"तब पोष्ट कार्ड / आंतरदेशीय पत्र पर, अशोक चिन्ह की राजमुद्रा हुआ करती थी. पोष्ट विभाग द्वारा, वह राजमुद्रा वहां से उसे हटाकर,"* पोष्ट कार्ड पर बाघ का शिर मुद्रा तथा आंतरराष्ट्रीय पत्र पर, मोर का चिन्ह अंकित किया था. वही हमारे करंसी पर, केवल अशोक का, बडा चिन्ह (प्रतिक) ही हुआ करता था.‌ कांग्रेस शासन काल में, *"करंसी पर भारत की राजमुद्रा, बहुत ही छोटी कर डाली. तथा रुपये के करंसी पर, राष्ट्रिय राजमुद्रा बहुत ही छोटी कराकर, मोहनदास गांधी का फोटो,"* बडा अंकित कर डाला. कांग्रेस शासन वह बडा पाप, उन्हे ले डुबा. *कांग्रेस भी उनके पापकृत्य रुप में, बहुत छोटा राजकिय दल हो गया है. सिकुडता चले गया है. भाजपा का हश्र भी वही होने वाला है.* हमे यह समझना भी जरुरी है कि, *"करंसी पर गांधी आया, और भारत के करंसी का, डॉलर की तुलना मे अवमुल्यण शुरु हुआ है."* अत: करंसी को पुर्ववत स्थिती में लांना, बहुत जरुरी है. चक्रवर्ती सम्राट अशोक ने, प्राचिन भारत को, *"अखंड विशाल विकास भारत"* बनाया था. प्राचीन भारत को भाषा लिपी केवल *"ब्राम्ही - खरोष्टी लिपी"* थी. *"संस्कृत भाषा / लिपी"* का कहींं नामोनिशाण नहीं था. चक्रवर्ती सम्राट अशोक की जयंती *"चैत्र शुक्ल अष्टमी"* को, सरकारी स्तर पर, *"आज तक ना मनाकर"* वा उस दिन अवकाश ना घोषित कर, जो पाप भाजपा / कांग्रेस सरकार द्वारा किया गया है, उन पापों का दुष्परिणाम, उन दलों को भोगना पडनेवाला है.

      *"सिंध / हडप्पा संस्कृति"* (कालखंड - पुर्व हडप्पा संस्कृति वा पाषाण युग - इसा पुर्व ७५०० से ३७०० / सिंध संस्कृति वा पहिला नागरीकरण इसा पुर्व ३३०० से १५०० / परिपक्व हडप्पा संस्कृति वा मध्य कांस्य युग - इसा पुर्व २६०० से १९००) यह प्राचिन भारत की, सर्वोत्तम / उज्वल संस्कृति थी. फिर *विदेशी वैदिक ब्राह्मणों* द्वारा प्राचीन भारत पर आक्रमण (कालखंड इसा पुर्व १५०० से ६००) किया गया. भारतीय संस्कृती को तहस - नहस कर, पंडागिरी / यज्ञ विधी / दगाबाजी / गद्दारी आदी का बिजारोपण किया गया. फिर *तथागत बुद्ध काल* (इसा पुर्व ५६३ से ४८३) का उदय होता है. और *बौध्द मौर्य सम्राट साम्राज्य* काल  (इसा पुर्व ५४४ से १८५) मे, प्राचिन भारत ये *"स्वर्णमय भारत"* कहलाया जाता है. वैदिक धर्म का -हास होता है. फिर ब्राह्मण पुरुष *पुष्यमित्र शृंग* ये, *चक्रवर्ती सम्राट अशोक* का पडपोता *चक्रवर्ती सम्राट बृहद्रथ* दरबार में प्रवेश करता है. अपनी बहन की सम्राट बृहद्रथ से शादी करता है. प्रमुख सेनापती भी बन जाता है. वही ब्राह्मण ऋषी *पतंजली* के कहने पर, चक्रवर्ती सम्राट बृहद्रथ की हत्या भी करता है. और शासन अपने हाथ लेता है. आगे जाकर चक्रवर्ती सम्राट अशोक का *"अखंड विशाल विकास भारत"* ये खंड खंड हो जाता है. प्राचीन भारत पर मोगल शासक / अंग्रेजो की गुलामी लाद देता है. भारत के प्राचिन इतिहास से, एक संदेश हमें दे जाता है कि, *"हम जिन पर बहुत विश्वास करते है, वही विश्वासु व्यक्ति धोका दे जाता है."* जब विश्वासु व्यक्ति से धोका मिल जाता है, तब उस व्यक्ती की वेदना बयाण करने के लिये, शब्द भी नहीं होते है. वही धोकागिरी की बातें *"भारतीय राजनीति"* की, एक पहचान बन गयी है. जो ब्राह्मणवाद की एक देण है. और  *"चक्रवर्ती सम्राट अशोक की राजमुद्रा"* से खिलवाडीकरण, उसकी एक झलक है. अत: अब हमें बहुत सावध होना जरुरी है. पाप इस अवगुण संदर्भ में बुद्ध वचन है.

*"मधुआ मञ्ञति बालो याव पापं न पच्चति |*

*यदा च पच्चति पापं अथ बालो दुक्खं निगच्छति  ||"*

(अर्थात - जब तक पाप का फल नही मिलता, तब तक अज्ञ व्यक्ति पाप को, मधु के समान समझता है. किंतु उस का फल मिलता है, तब वो दु:ख को प्राप्त होता है.)

*"पापञ्चे पुरिसो कयिरा न तं कयिरा पुनप्पुनं |*

*न तम्ही छंद कयिराथ दुक्खो पापस्स उच्चयो ||"*

(अर्थात - मनुष्य यदी पाप हो जाए तो, उसे बार बार ना करे. उस मे रत ना हो जाए. क्यौ कि पाप का संचय यह दु:खदायक होता है.)

*"पापोपि पस्सति भद्र याव पापं न पच्चति |*

*यदा च पच्चति पापं अथ पापो पापामि पस्सति ||"*

(अर्थात - जब तक पाप का परिणाम सामने नही आता, तब तक पाप अच्छा लगता है. जब पाप का परिणाम आना शुरु हो जाता है, तब पापी को समझ मे आ जाता है कि, मैने क्या कर दिया है.)

*"अभिवादनसिलिस्स निच्चं वध्दापचायिनो |*

*चत्तारो धम्मा वड्ढन्ति आयु वण्णो सुखं बलं ||"*

(अर्थात - जो नित्य बडों का आदर करता है, अभिवादनशील है, उस की आयु, वर्ण, सुख और बल मे वृध्दी होती है.)

      तथागत बुध्द ने सारनाथ ग्राम मे, अपने पांच भिक्खुओं को, जो प्रथम मार्गदर्शन किया था, उसे *"धम्म चक्र प्रवर्तन"* कहते है. तब बुध्द पाच मापदंड का पालन करने को कहा है. हमे देखना है कि, हम उस मापदण्ड में कितने खरे उतरते है.... ! *१. किसी भी प्राणी की हिंसा ना करना २. चोरी ना करना ३. व्यभिचार ना करना ४. झुट ना बोलना ५. मादक वस्तुओं का सेवन ना करना....!*

    हमारे भारतीय सत्तानीति को, *"बुद्ध वचन"* यह एक सिख है. हमे *"विकास भारत - समृद्ध भारत"* की ओर बढना हो तो, देशभक्ती की ज्योत जगानी होगी. *"गद्दरी / धोकागिरी / अनिष्ठा"* आदी अवगुणों से, परे रहना होगा. सभी आवाम को उचित न्याय देना होगा. *"समता - स्वातंत्र्य - न्याय - बंधुता"* इस बुध्द भाव का, अमल करना होगा. राजनीति को साफ सुफरा करना होगा. पदों का दुरुपयोग करनेवालों को दंडित करना होगा. जय भीम ...!!!


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नागपुर, दिनांक २७ अप्रैल २०२४

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