Saturday 9 July 2022

 ✍️ *जपान के भुतपुर्व प्रधानमंत्री शिंजो आबे की हत्या से लेकर श्रीलंका राष्ट्रपती गोताबाय राजबाक्षे का पलायन (?) और भारतीय राजनीति / सत्तानीति ...!*

  *डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७

  मो.न. ९३७०९८४१३८/९२२५२२६९२२

राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल


    अभी अभी हुयी विश्व की *"तिन देशों की तिन बडी दु:खपुर्ण घटनाओं"* से, भारत की आज तक चली आ रही यह राजनीति हो, या सत्तानीति हो, या रणनिती /कुटनीति हो, इन्होने उस घटनों से बहुत बडा सबक लेना बहुत जरूरी है. चाहे वो सत्ताराज पुर्व कांग्रेसी धारा का हो, या फिर भाजपा विचार धारा का भी क्यौ ना हो! दोनो भी राजकिय दलों ने *"देश आर्थिक विकास* के प्रति कम और *स्व:-कल्याणप्रती"* जादा लक्ष केंद्रित किया है / था. या हमारी न्यायव्यवस्था भी *"देश का वॉच डॉग"* के रुप मे, अपना सही उत्तरदायित्व नही निभा पायी है. या कहे वे *"भारत के चक्रवर्ती सम्राट अशोक"* का अखंड विशाल / समृध्द भारत नही बना पायी है. विश्व की वे तिन दु:खपुर्ण घटना है. पहिली घटना है - ब्रिटन के प्रधानमंत्री *बोरिस जॉन्सन"* का, देश के सर्वोच्च पद से, अपमानीत होकर हट जाना. और उन्हे उस पद से हटने का कारण रहा, *लैंगिक गैरवर्तन के दोषी क्रिस पिंचर की हुजुर दल के उपमुख्य प्रतोद पद पर नियुक्ती.* जिस का ब्रिटन के सभी सदस्यों ने कडा विरोध करने के कारण, बोरिस जॉन्सन को प्रधानमंत्री पद छोडना पडा.  दुसरी घटना है - जपान के भुतपुर्व प्रधानमंत्री *शिंजो आबे* इनकी की गयी हत्या. *शिंजो आबे, वे ऐसे नेता है / थे, जिन्होने जपान की बिगडी हुयी खस्ता आर्थिक हालात को, अच्छे तरिके से मजबुत किया.* भारत से अच्छे संबध भी बनाये थे. और तिसरी घटना है - श्रीलंका के राष्ट्रपती *गोताबाय राजपक्षे* इन का अपने ही सरकारी बंगले से, भारी जन आक्रोश के कारण पलायन करना. और उनके सरकारी बंगले पर, श्रीलंकन लोगों का एकमुखी घुस जाना तथा वहां हमला करना भी है. क्यौ कि, *श्रीलंका की बदतर आर्थिक हालात बनाने के कारण, वहां के लोगों ने केवल राष्ट्रपती को ही जिम्मेदार माना है.‌* तथा श्रीलंका मे चल रही दैंनदिन समस्या के कारण भी, वह जन आक्रोश श्रीलंका मे उभर पडा है. अब सवाल यह है कि, *"भारत की आर्थिक स्थिती क्या है ?"*

      भारत की १५ अगस्त १९४७ को मिली यह आजादी हो, या २६ जनवरी १९५० को मिली *"भारत संविधान व्यवस्था"* हो, यहां एक प्रश्न‌ हमेशा याद आयेगा‌ और वह गंभिर प्रश्न है - *"सामाजिक / आर्थिक समता"* का ! डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने २६ नवंबर १९४९ को *"संविधान सभा"*  में, "भारत के संविधान" को अंतिम रूप देते समय कहा कि, *"‌On 26th January 1950, we are going to enter into life of contradictions. In politics we will have equality and in social and economic life we will have inequality. (........) How long shall we continue to live this life of contradiction ?"* भारत आजादी के इन ७५ साल पार करने के बाद भी, आज तक किसी भी सरकार ने, इस दिशा में पहल नही की. खैर यह बात छोडो, *"भारत राष्ट्रवाद"* हो या, *"भारतीयत्व भावना"* यह रुजाने भी, कोई पहल नही की गयी.‌ ना आज तक इस गंभिर विषय पर, *"बजेट में ना तो कोई प्रावधान"* किया गया है, ना ही *"भारत राष्ट्रवाद मंत्रालय / संचालनालय"* की स्थापना की गयी है. बस, हमारी राजनीति - सत्तानीति यह केवल *"देववाद / धर्मवाद / जातवाद / स्व-कल्याणवाद"* इस बीच ही केवल घुमती नज़र आती है. और हमारी *न्यायव्यवस्था* भी इस महत्वपुर्ण विषय पर, गंभिर नही दिखाई देती.

    हमारा रोज गानेवाला राष्ट्रगान *"जन गन मन अधिनायक जय हे...!"* ही लो, जो *"इंग्रज राजा"* के गुनगान का प्रतिक है, हम आज आजादी के ७५ साल में भी, वह गाते आ रहे है. हमने उस में बदलाव की दिशा में, कोई पहल नही की है. वही *"वंदे मातरम्..."* गान भी लो, वह भी दुर्गादेवी के स्तुती पर, लिखा गया वह गीत है.‌ *वहां भी भारत का कोई गुणगाण नही है.* इस दिशा पर भी, हमे अभी सोचना बहुत जरूरी है. आजादी की बातें बहुत होती आ रही है.‌ पर वह आजादी कौनसी ? यह प्रश्न है. *"भारत में प्रजातंत्र"* भी शेष है या नही ? यह संशोधन का विषय है. *"बहुजन हिताय - बहुजन सुखाय"* इस लोग भावनाओं की अवहेलना दिखाई देती है. चाहे वह विषय - *"किसान आंदोलन"* का हो या, *"मागासवर्गीयों के आरक्षण"* का हो...! यहां तो, मानव के अधिकारों को, पुरी तरह नकारा जा रहा है.‌ दडपशाही का बोलबाला है. जनता मौन है. नेता लोग सत्ता के गुलाम है. सवाल है, *" उन तिनो देशों की वह गंभिर स्थिती, अगर भारत में आयी तों ...?"* भारत का भविष्य क्या होगा...??? जरा सोचो.


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(नागपुर, दिनांक १० जुलै २०२२)

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