Monday, 1 May 2023

 ➿ *अनुत्तर....!!!*

*डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य'* 

मो. न. ९३७०९८४१३८


जब हमे निकल पडे

हम अपने ही मिशन‌ पर

सम्यक राह अकेली थी

और हम भी अकेले थे...

लोग जुड़ते गये

कारवां बनते गया

नाम चलते‌ रहां

और फिर वह कारवां

बिछडता भी गया...

शक्ती की मिसाल को

ग्रहण लगते गया

हम तुटते गये, बिखरते गये

फिर भी ना हम अकेले थे

ना ही हम शक्तिमान थे

बस, हम बन गये गुलाम ...?

हर एक बिखराव में

स्वार्थ की परिसीमा

गद्दारी की मानसिकता

छुपी हुयी होती है...

यह बिखराव का चक्र 

हम कब तक चलायें रखे ?

समाज मन भावों को

हम कब तक दबायें रखे ?

इस गंभिर प्रश्न के उत्तर में

हम आज भी उलझे है

सुलझने का सही उत्तर

आज भी अनुत्तर है...!!!


* * * * * * * * * * * * *

आंबेडकर मिशन‌ की शोकांतिका

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