Sunday, 21 May 2023

 🎓 *भारत सरकार द्वारा दिल्ली राज्य के अधिकारों संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय में फेरविचार याचिका बनाम दिल्ली सरकार विरोधी अध्यादेश...!*

   *डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य'* नागपुर १७

राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल (सी.आर.पी.सी.)

एक्स व्हिजिटिंग प्रोफसर, डॉ. आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ, महु (म.प्र.)

मो. न.‌ ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२


    मा. सर्वोच्च न्यायालय के सरन्यायाधीश *धनंजय चंद्रचूड* इनकी अध्यक्षता में, *न्या. एम. आर. शहा, न्या. कृष्ण मुरारी, न्या.‌ हिमा कोहली, न्या. पी.‌ एस.‌ नरसिंहा* इन पांच न्यायाधीशों के घटनापीठ ने ११ मई २०२३ को, दो एतिहासिक फैसले सुनाये थे.‌ एक अहं फैसला *"महाराष्ट्र के तत्कालिन मुख्यमंत्री उध्दव ठाकरे* विरुध्द *एकनाथ शिंदे* प्रकरण पर तथा दुसरा बडा फैसला था *"दिल्ली राज्य के अधिकार विरुध्द केंद्र सरकार अधिकार* विवाद का...! सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दोनो भी फैसले, तर्कसंगत तथा तार्किक दृष्टिकोण से बिलकुल सही एवं स्पष्ट कह सकते है. उपरोक्त दोनो ही निर्णय, भारत सरकार को एक बडा तमाचा भी था. फिर भी भारत सरकार, न्यायालय के निर्णय पर, आत्मचिंतन ना करती हो तो, *"नंगो को खुदा डरे...!"* इस कहावत के बदले, *"नंगो को पुरा नंगा करे...!"* यह कहावत उचित कहनी होगी. *मोहनदास गांधी* / शारदापीठ के शंकराचार्य जगतगुरू *राजराजेश्वर* जी / राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ (आर.‌एस.‌एस.) के प्रमुख *के. सुदर्शन* / संस्कृत भाषा के कवि तथा सनातनी विचारों के नीतिकार *भर्तृहरी* इनके शब्दों में, *"भारत की राजनीति वेश्या समान है."* यह विधान भारत के राजनीति के लिए, बिलकुल सही बैठता है.

     मा.‌ सर्वोच्च न्यायालय की घटनापीठ ने, अपने निर्णय में कहा कि, *"राजधानी नयी दिल्ली के प्रशासनिक अधिकारी वर्गो की नियुक्ति हो या, बदली का अधिकार यह नयी दिल्ली सरकार का ही है. दिल्ली के नायब राज्यपाल, नयी दिल्ली सरकार के सलाह तथा सहकार्य पर ही काम करेंगे."* हमें यह समझना होगा कि, दिल्ली भारत‌ का *सार्वभौम राज्य* है. ना कि, वह कोई *केंद्र शासित प्रदेश...!* गणराज्य भारत के मुख्य घटनाकार डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर इन्होने, *"भारतीय संविधान"* को मंजुरी प्रस्ताव पर, *"संविधान सभा"* मे सदस्यों द्वारा उठायें गये प्रश्न - *"सत्ता केंद्रियकरण तथा राज्यों के अतिक्रमण"* पर, उत्तर देते हुयें कहां कि, *"केंद्र को जादा अधिकार, यह संविधान में सर्वसामान्य अंग है. केवल इमरजंसी मे ही, यह ज्यादा अधिकार केंद्र के पास होंगे.‌ अन्यथा नहीं."*  (संविधान सभा, नयी दिल्ली दिनांक २६ नवंबर १९४९) और फिर *"राज्यों के अधिकार"* संदर्भ में, आगे *डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर* इन्होने कहा है कि, *"कानुन बनाने का अधिकार, यह केंद्र सरकार एवं राज्य सरकारों में विभाजित है.‌ और यह विभाजन केंद्र सरकार द्वारा ना होकर, वह संविधान द्वारा निहित है.‌ अर्थात किसी राज्यों को, केंद्र सरकार के अधिन नही रखा गया."* अर्थात भारत यह जैसा *"सार्वभौम देश‌"* है, वैसे ही भारत के तमाम राज्य यह *"सार्वभौम राज्य"* है. वहां केंद्र सरकार का ज्यादा हस्तक्षेप, बिलकुल ही उचित नही है.

     भारत के सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय, *"दिल्ली सरकार"* के पक्ष में जाने के बाद भी, अगर हमारी *केंद्र (भारत) सरकार* यह सर्वोच्च न्यायालय में *"फेरविचार याचिका"* डालती हो तो, वह केंद्र (भारत) सरकार का *संविधानीक अधिकार* भी है.‌ परंतु भारत सरकार नें *"राष्ट्रिय राजधानी नागरी सेवा प्राधिकरण"* बनाने का *"अध्यादेश‌"* यह, भारत के महामहिम राष्ट्रपती के हस्ताक्षर से जारी करती हो तो, वह बहुत चिंतनीय विषय है. और राष्ट्रपती ने, उस अध्यादेश पर सही करना भी, *राज्यों के अधिकारों पर हमला है.‌* भले ही उस *"प्राधिकरण"* में, दिल्ली के मुख्यमंत्री प्रमुख बने हो. परंतु प्राधिकरण के अन्य दो सदस्य - *दिल्ली के प्रधान‌ सचिव तथा प्रधान‌ गृह सचिव* इनके हाथों अगर‌ दिल्ली राज्यों की डोर जाती हो तो, *"आवाम नियुक्त विधायकों"* का, क्या काम रहा ??? यह बडा प्रश्न है. *"क्या वह अध्यादेश, मा. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की बडी (?) अवमानना नही है ?"* अगर भारत सरकार ही, सर्वोच्च न्यायालय निर्णय की अवमानना करे तो, *भारतीय आवाम के गुंडगिरी* को, हम नाजायज कैसे कह सकते है ? और यह *"स्वस्थ भारत - समृध्द भारत‌"* के लिए, बडा ही संशोधन का विषय रहा है. अब इस विषय पर, भारत के तमाम राजकिय दलों‌ को भी सोचना है.‌ नही तो कहना होगा कि, *"हमाम में सभी नंगे है...!"*


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* *डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य'* 

नागपुर, दिनांक २२ मई २०२३

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