🇮🇳 *डॉ. मोहन भागवत जी की मानसिकता हिंदुत्व से भारतीयत्व दिशा की ओर - कब...?*
*डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य', नागपुर*
मो.न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ वा आर. एस. एस. वा Racial Secret Service (?) नाम से परिचीत कट्टरमय हिंदुत्ववादी वा ब्राम्हण वर्चस्ववाद (???) की छत्रछाया पुरस्कृत धर्मांधी संघटन के सेनापती डॉ. मोहन भागवत जी ने, अभी अभी *"महाराष्ट्र साहित्य कला प्रसारीणी सभा"* द्वारा आयोजित एक सभा को संबोधित किया है. डॉ. भागवत के वहा किये भाषण में, किये गये कुछ अहमं बिंदु पर, चर्चा करना यह बहुत ही अनिवार्य है...! क्यौ कि, वह विषय भाव देश हित एवं समाज हित से जुडा हुआ है...!
१. 'हिंदुत्व' इस संकल्पना पर जो किस निकला जा रहा है, वास्तविकत: *स्वयं की, गाव, देश, मानवता एवं संसार की सकारात्मक निर्मिती पर श्रध्दा होना ही 'हिंदुत्व' है.* यह व्याख्या डॉ. भागवत ने बताई है.
२. राष्ट्र उभारणी मे विरोधक भी हमारे सहप्रवासी है. *राष्ट्र उभारणी की दिशा यह सर्व समावेशक होना चाहिये.*
३. राजनिती मे 'मुक्त' यह भाषा चलती है. *संघ इस भाषा का वापर कभी नही करता.* इस लिए डॉ. भागवत ने 'काँंग्रेस मुक्त - मोदी मुक्त - संघ मुक्त' भाषा का प्रयोग ना करने की बातें भी कही.
४. *'राष्ट्र निर्मिती' यह केवल कोई एक ही महान व्यक्ती का योगदान नही है.*
५. 'पिंडे पिंडे मतिर्भिन्न' इस संकल्पना अनुसार, सभी विद्वान ओं के विचार एक ही हो, यह संभव नही. *परंतु अलग दृष्टिकोन रखकर भी, हमे एक ही ध्येय की ओर चलने का युरोपियन विचार गुण, हम ने सिखना चाहिये.* युरोप देशों मे असंख्य युध्द हुये. परंतु उन देशों के परस्पर सहकार्य ही उन्हे एक साथ जोडने मे, सकारात्मक भाव देता रहा है.
६. *हमारे भारतीय प्रशासन ने नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर जाना चाहिये.* ता कि, माती से जुडे हुये प्रशासक यहा निर्माण हो.
अब हम संघवाद के उस 'हिंदुत्व' शब्दवाद पर रूबरू होंगे...! डॉ. भागवत द्वारा रचित 'हिंदुत्व' की वह व्याख्या क्या विश्वमान्य है ? वही *हिंदु > हिनदु > हिन + दु > निच लोक, अधम, चोर, लुटेरे, काले मुहँवाले* इस विदेशी शब्दार्थ भाव को हम क्या कहे...? दुसरा भी महत्वपुर्ण भाव यह है कि, बौध्द, जैन, सिख, इसाई, मुस्लिम इ. अल्पसंख्यक समुह स्वयं को हिंदु क्यौं माने...? तो फिर क्या हम ने *"बौध्दत्व, मुस्लिमत्व, जैनत्व, सिखत्व, इसाईत्व"* आदी आदी धर्मांधी भावों को तवज्जो देना चाहिये ? यह भी अहं प्रश्न है. अगर हर धर्म समुह, इस सोच को बढावा देता रहा तो, "भारतीय एकात्मिक भावना" का क्या होगा ?
चक्रवर्ती सम्राट अशोक का "अखंड भारत" यह विकसित - शांतीप्रिय - अहिंसक - महाविशाल भारत था. *अखंड भारत यह भारत के अलावा पाकिस्तान, अफगानीस्तान, बांगला देश, नेपाल, तुर्किस्तान, ताजिकीस्तान, भुतान, उझबेकिस्तान तक फैला था.* आज वे सभी देश अखंड भारत से अलग हुये, स्वतंत्र देश है. इस संघवाद के पुरखों ने ब्राम्हणी पुष्यमित्र के माध्यम से, सम्राट अशोक मौर्य वंश के आखरी शासक, सम्राट ब्रहद्रथ की हत्या कर, हमारे अखंड भारत को कभी मुस्लिम शासक, तो कभी अंग्रेज शासकों के हवाला किया था. और अखंड - विकास भारत को इन ब्राम्हणों ने खंड खंड कर दिया. ब्राम्हणी परशुराम भी इतिहास मे खुनी - गद्दार पात्र कें रुप मे ही दिखाई देता है. *"वही छत्रपती शिवाजी महाराज, छत्रपती संभाजी महाराज के हत्यारे और देशद्रोही भी ब्राम्हणी समुह हमे इतिहास मे दिखाई देता है."* हमारे राष्ट्रपिता ज्योतीबा फुले को मारने का प्रयास हो या, माता सावित्रीबाई फुले पर भी गंदगी फेकनेवाला निच - हिनता का प्रतिक यह ब्राम्हणी समुह ही है. बौध्द काल के विद्वान भिख्खुओं की हत्या करनेवाला यही समुह है. और ऐसे कितने अनगिणत बहुजनों की हत्या इन्होने की है. आज का खंडीत भारत, इन पुंजीपती ओं का गुलाम करनेवाला यही तो ब्राम्हणी समुह है, जो भारत देश का पुरा बंट्याधार कर रहा है...! *"अर्थात हिंदुत्व यह तो केवल एक 'कुटनिती जाल' है, ब्राम्हण्यवाद को सशक्त कवच बनाने का...!"*
"राष्ट्र उभारणी" की बातें भी, ब्राम्हणी मुहँ का दुसरा कुटिलतावाद - खोकलावाद है. क्या वे अन्य बहुसंख्यक - अल्पसंख्यक समुह को अपने साथ लेकर चल सकते है ? *"अगर हाँ तो, राजसत्ता - न्याय व्यवस्था - नोकरशाही - अन्य व्यवस्था आदी मे, इन ब्राम्हणी अल्पसंख्यक समुह के भागीदारी को उन की लोकसंख्या अनुपात में नियुक्ती का कानुन बनाना होगा...! और उस का अमल भी...!"* वही समस्त बहुसंख्यक एवं अन्य अल्पसंख्यक समुह को उनकी लोकसंख्या के अनुपात मे उपरोक्त सभी व्यवस्था मे नियुक्ती के दरवाजे, उन्हे खोलने होंगे... जो आज भी बंद है ! वही उच्च न्यायालय हो या सर्वोच्च न्यायालय हो, वहाँ अनैतिक प्रक्रिया से बैठे समस्त ब्राम्हण न्यायाधीशों को हटाकर, बहुसंख्यक - मागासवर्ग - अन्य अल्पसंख्यक पात्रताधारी वकिल वर्ग की नियुक्ती की जाएँ. यही न्याय अन्य सभी जगह भी स्विकार्य होना जरूरी है. क्या ब्राम्हण्यवाद इस मानसिकता की ओर बढने को तैयार है...? यह भी अहं प्रश्न है.
"मुक्त भाषा" का वह जहर भी तो, संघवाद के राजकीय विचारधारा का ही परिपाक है. पहले तो वह भाषा सुनाई नही देती थी, जो आज सुनाई दे रही है. अब सवाल है कि, कहा गयी ब्राम्हण्यवाद की वह पवित्र संस्कार भारती...?
निश्चित ही "राष्ट्र निर्मिती" यह कोई भी एक ही महान व्यक्ती का योगदान नही है ! जहाँ काँग्रेसी सरकार ने, हमारे शहिद क्रांतीकारी एवं सुभाषचंद्र बोस समान महान लोगो़ को बौना कर, केवल अनैतिकधारी - अहिंसक (?) मोहनदास गांधी को ही महान हिरो बनाया है - था. वही अखंड भारत के चक्रवर्ती सम्राट अशोक की वह राजमुद्रा, जो खंडीत भारत की शासन राजमुद्रा है, उसे भारत के करंसी पर, बहुत ही छोटा कर, मोहनदास गांधी को बडा करते हुये बिठा दिया. *"क्या यह देश की राजमुद्रा की अवहेलना नही है...? वही अखंड भारत का महान शासक अशोक की जयंती सरकार ने कभी मनाई ही नही...! ना उस दिन अवकाश दिया गया...!"* क्या यही गद्दारीता - देशद्रोहीता - अहसान फरामोशता ही आप लोगो़ं की संस्कृती है ? अगर समान न्याय करना हो तो, मोहनदास गांधी को करंसी पर से हटाकर, किसी भी महान व्यक्ती की फोटो वहाँ न रखना ही सही पहल होगी...! क्या यह सरकार वह कृतीशिलता दिखायेगी...? नही तो, आप लोगों का वह कथन यह खोकला नाद होगा !
"पिंडे पिंडे मतिर्भिन्न" इस संकल्पना की सच्चाई को नकारा भी नही जा सकता ! परंतु "हिंदुत्व" का अनैतिक दुकान लगाकर, अपना गैर विचार थोपने की कोई चेष्टा करे तो, वे अनैतिक विचार जन मन ने क्यौं स्विकार्य करना चाहिये...? डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर हमे "भारत राष्ट्रवाद" की ओर जाने का संदेश देते है. वे अपने भाषण में कहते है, *"भाषा, प्रांतभेद, संस्कृती आदी कोई भी भेदभाव मुझे मान्य नही. पहले हिंदी, उस के बाद मे हिंदु वा मुसलमान यह विचार भी मुझे स्विकार्य नही. यहाँ के सभी लोगो़ ने प्रथम भारतीय, अंतत: भारतीय, और भारतीयता के आगे कुछ नही, यही मेरा विचार है....!"* (मुंबई १ अप्रेल १९३८) यह आंबेडकरी विचार ब्राम्हणी देशद्रोही संघ और उसका सेनापती डॉ. भागवत ने ना स्विकारने का राज क्या है ? *क्या देशद्रोही ब्राम्हण पुष्यमित्र, देशद्रोही ब्राम्हण परशुराम जिन्होने, भारत में कई लोगों को मौत के घाट उतारकर, अनैतिक राज की स्थापना करने की ओर बढ़े थे...!* तो क्या डॉ. भागवत जी आप हमारे भारत में "नदीयों का रक्त पाट" बहाने के पक्षधर है ...? वही *"एक ही ध्येय के संदर्भ मे युरोप से सिख लेने की बातें !"* आप ने की है. डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा के अपने भाषण मे लोकशाही की बुनियाद प्राचिन बौध्द भिख्खु संघ में होने का संदर्भ दिया है. हमे भारत का प्राचिन बौध्द कालीन इतिहास ही, नैतिकता - विकासता की सिख देता है. युरोप जाने की क्या आवश्यकता है.. ? वेसे देखा जाएँ तो, आप लोगों ने "भारत राष्ट्रवाद" की शिक्षा हमे देने का, नैतिक अधिकार पुर्णत: खो चुके है ! वही इस ब्राम्हणी समुह ने देशद्रोहीता का जात भाव लाकर अन्याय- अत्याचार को बढ़ावा देने से, क्या उन्हे "देशद्रोही" कहने में मे गलत कहा है...!
*"भारतीय प्रशासन की नकारात्मकता से सकारात्मकता की ओर जाना...!"* यह भाव तो , राष्ट्र विकास से संबंधित महत्वपुर्ण विषय है. परंतु क्या भारत सकारात्मकता की ओर जाने का नैतिक भाव रखता है ? यहाँ तो, बहुसंख्यक समुह के अधिकारों को दबाया - कुचला जाता है. *जाती आधारित प्रमाण में नौकरी का प्रतिनिधित्व ही नही दिया जाता. भारतीय कानुन व्यवस्था हो या अन्य कोई भी व्यवस्था हो, उन मे ७०-७८ प्रतिशत ब्राम्हणी वर्ग व्यवस्था का कब्जा बना है. जब की उच्च वर्ग समुह की लोकसंख्या यह ३-५ प्रतिशत ही है.* यहाँ तो मागासवर्गिय जाती समुह के हकों का बली दी जाती है ! फिर भी वह समुह "रक्त क्रांती" की बातें नही करता. यह डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर द्वारा दी गयी बुध्दवाद की ही सिख है...! परंतु ब्राम्हण्यवाद यह तो, अपनी सिमाएँ लांगते हुये दिखाई देता है. मग्रुरी कर रहा है. वही झुट़ की चादर पर अपना बसेरा करता है, उसे बदलने की बहुत ही जरूरत है.
ब्राम्हण्यवाद के देशद्रोही - समाज विघटक नीतिओं के चलते, मुझे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के "संविधान सभा" मे बोले गये वह चेतावणी भरे शब्द याद आ गये. डॉ. आंबेडकर कहते है, *"In politics we will have equality and in social life & economic life we will have inequality. In politics we will be recognzing the principle of one man one vote and one vote one value. In our social and economic life, we shall, by reason of our social and economic structure, continue to deny the principle of one man one value. How long shall we continue to live this life of contradiction ?........... We must remove this contradiction at the earliest possible moment or else those who suffer from inequality will blow up the structure of political democracy which ia Assembly has to laboriously built up."* (संविधान सभा, नयी दिल्ली, दिनांक २६ नवंबर १९४९)
भारत को प्रजासत्ताक होने में आज ७० साल के आस पास का बडा कालखंड गुजर चुका है. भारतीय सत्ता शासन मे हमे केवल *"वर्ण बदल शासक"* दिखाई देते है. *"पहले गोरे अंग्रेज लोक शासन किया करते थे. और आज काले अंग्रेज लोक...!"* कहा है भारत प्रजासत्ताक राज्य...? भारत तो "ब्राम्हण्यवादी शासक" राज्य बन गया है. क्या अब "भारत बहुसंख्यक राज्य" बनाने के नयी क्रांती का बिगुल फुकना होगा...? राजगुरु, भगतसिंग समान रक्तरंजीत क्रांती सेनानी के आगमन की राह, ये ब्राम्हण शासक कर रहे है...? सुभाषचंद्र बोस पुरस्कृत "आझाद हिंद सेना" के सदृश्य मिलिटरी का निर्माण कर, हमे *"रक्त क्रांती युध्द"* लढना होगा...? *न्यायदान - सत्ताराज के खुर्चीपर विराजमान ना-लायक धारकों को, क्या उन की सही जगह बताना होगी...?* यह तो एक बडा ही संशोधनात्मक, चिकित्सात्मक, विचारात्मक गहन विषय है...! ब्राम्हण्यवाद ने आज तक अनगिणत नेताओं की हत्या की है. शायद कल मेरा भी उस मे नाम हो...! मुझे उस की चिंता भी नही है. मेरे लिए भारत देश सर्वोपरी है...! परंतु ब्राम्हणी मानसिकता ने भविष्य में, यह "हत्या सत्र - अन्याय सत्र" बंद नही किया तो, मोहनदास गांधी हत्या कांड की वह याँदे स्मरण करना जरूरी है...!!! *"भारत राष्ट्रवाद" यह तो एक सर्वोच्च भाव है, प्रेम - मैत्री - करूणा - भाईचारा आदी को जोडने के लिए...!"* अत: "भारत राष्ट्रवाद मंत्रालय एवं संचालनालय" का जल्द से जल्द निर्माण करने मे ही देश हित है. और जातवाद - धर्मवाद - देववाद - संस्कृतीवाद आदी मन विग्रहित विचारो़ को दुर करने की दिशा में पहल करे. जरा सोचो...!!! कल के "नया और समृध्द भारत बनाने" के भाव की ओर....!!!
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* *डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य', नागपुर*
( भारत राष्ट्रवाद समर्थक)
* राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल
* मो.न. ९३७०९८४१३८, ९२२५
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