🇮🇳 *भारत के तिन नये कानुन - संसद द्वारा बगैर चर्चा से पारित होकर भी इस कानुन को विरोधी दलों कां विरोध क्यौं नहीं ? क्या यह भारत का संविधान बदलने की पहिली कडी है ?* (संविधान की भाषा बोलने वाला - विरोध पक्ष नेता राहुल गांधी अब किस बिल में...!)
*डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७
राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल
एक्स व्हिजिटिंग प्रोफेसर, डॉ बी आर आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ महु म प्र
मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
सन २०२४ यह साल बहुत ही दु:खदायी है, क्या यह माना जाए ? हमारे देश की संविधानिक संस्था - *"भारतीय चुनाव आयोग (Election Commission) / प्रवर्तन निदेशालय (ED) / केंद्रीय गुप्तचर विभाग (CBI)* इन पर भारतीय (सत्ता) केंद्र सरकार के *"बटिक"* होने का आरोप लगता रहा है. वही *राज्यसभा के सभापती एवं उपराष्ट्रपती / लोकसभा के अध्यक्ष"* उस न्यायदान खुर्ची पर बैठकर भी, *"तटस्थ रुप से न्याय"* करते हुये, वो हमें नज़र नहीं दिखाई दिये. कांग्रेसी द्रोणाचार्य - *मोहनदास गांधी* / संघवाद (RSS) नायक - *के. सुदर्शन* / प्राचिन भारत के विचारविद (?) - *भर्तृहरी* यह मान्यवर, जब भारतीय राजनिती को, *"वेश्यालय"* की उपमा दे जाते है, अत: क्या उनके उस शब्द (?) बयाण को, उचित माना जाए ? यह भी एक प्रश्न है. वही *"मा. राष्ट्रपति / मा. राज्यपाल"* इनको मिले, *"भारत संविधान - अनुच्छेद ३६१"* के अधिन अधिकार को, *"मा. सर्वोच्च न्यायालय"* में एक चुनौती दी जाती हो तो, इस संदर्भ में और शर्म की बात, और क्या हो सकती है. वही *"संसद"* में १५० से उपर विरोधी दल सांसदो को *"निलंबित"* कराकर और *"भारत गृह मंत्रालय"* द्वारा (बिना न्यायिक आयोग) उसे सदंन पटलं पर रखकर - *"Criminal Penal Code 1898 (Cr.PC) / Civil Penal Code 1860 (CPC) / Indian Evidence Act 1872"* इन अंग्रेजी शब्दवाले महत्त्वपुर्ण ३ कानुनों को बदलकर (वह कानुन *अंग्रेज कालीन - औपनिवेशिक* होने का गंभीर आरोप होने से) - *"CrPC - भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) / CPC - भारतीय न्याय संहिता (BNS) / Evidence Act - भारतीय साक्ष्य अधिनियम (BSA)"* यह हिंदी नाम वाले कानुन पास कराकर, *"१ जुलै २०२४"* से अमल में लाया गया. उस *"तिनो नये कानुनों"* को, *"संसद"* में स्वीकृती देने के पहले, *"संसद में कितने तिन चर्चा"* चली है ? वह नये कानुन बनाने के पहले, *"भारतीय आवाम का मत,"* क्या लिया गया था ? यह अहं प्रश्न है. *"भारत का संविधान"* बनाने के पहले, सन १९४६ में *"संविधान सभा"* का गठण कराकर, संविधान सभा में, हर अनुच्छेद पर गंभीर चर्चा होते रही. और *"संविधान सभा"* यह २४ जनवरी १९५० को बरखास्त की गयी. क्या यही मापदंड, उन *"तिन नये कानुनो"* के संदर्भ में लागु किये गये ? अगर नहीं तो, समस्त *विरोधी दल / भारत के वकिल* वर्ग / *आम जनता* यह खामोश क्यौं है ? भारत का *"Watch Dog"* - सर्वोच्च न्यायालय भी ? मा. सर्वोच्च न्यायालय ने, *"स्वयं होकर उसे स्थगिती"* क्यौं नहीं दी ? यह अहं प्रश्न है.
पुराने *"अंग्रेजी शब्दवाले"* तिन कानुन - *"CrPC / CPC / Evidence Act"* जो बदले गये, इसका कारण वे *"औपनिवेशिक कानुन""* थे, क्या यह आरोप स्वीकार्ह है ? यह बडा प्रश्न है. यही नहीं, उन पुराने तिनों कानुनों में, जो *"धारा / कलम / Section"* लिखे गये थे, उस में भी बदलाव किया गया है. *"औपनिवेशिक"* तथा *"अंग्रेजी शब्द"* के विरोध का कारण, हमे हजम नही हो रहा है. *जो लोग आरोप* करते है, उनके ही ज्यादा तर लडके, इंग्रजी स्कुलों में पढते है. ज्यादातर अंग्रेजी भाषा कां प्रयोग भी करते है. विदेशों में उनके लडके / परिवार बसे है. *"क्या पुराने कानुन बदलने के लिये, जनमत लिया गया है ?"* फिर वह पुराने कानुन, बदलने का औचित्य क्या था ? *"यह तिनो कानुनों को बदलना, भारतीय संविधान बदलने की वह पहिली कडी है...!"* यह हमें समझना होगा. इस माध्यम सें भारतीय आवामों कों, *"अल्प मात्रा जहर"* पिलांया भी गया है. उधर दक्षिण भारत में, *"कानुन के हिंदी नामकरण"* से, बहुत रोष होने का समाचार है. "भारत का संविधान" हमें *"कानुनो में संशोधन "* करने की, अनुमती प्रदान करता है. दुसरी बात भारत संविधान निर्माता *डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर* इन्होने *"कोर्ट की भाषा"* संदर्भ में कहा है कि, *"कोर्ट की भाषा कौनसी हो ? इन विचारों से मेरा मन व्यथित होता है. कुछ लोक कहते हैं कि, कोर्ट की भाषा हिंदी हो. वही कुछ लोक कोर्ट की भाषा अंग्रेजी हो, यह कहते हैं. स्थानिक भाषा द्वारा कानुनी शब्द व्यक्त नहीं कर सकते. यह अनुभव भी है. उदाहरणार्थ - "इक्वीटी" इसे उचित शब्द नहीं है. इसीलिए स्थानिक भाषा कार्ट होना किसी के फायदे में नहीं है. इस से राज्य कारभार चलाने में दिक्कते आयेगी. अर्थात राष्ट्रिय भाषा कार्यक्षम होने पर, इसे उचित स्थान प्राप्त होगा."* (औरंगाबाद, २३ जुलै १९५०) क्या हिंदी भाषा को, समस्त राज्यों में स्वीकृती मिली है ? यह भी प्रश्न है. तो फिर इन *"तिनो नये कानुनों"* का लाना, क्या बडे परेशानी का कारण बनेगा ??? यह भी प्रश्न है
अब हम हमारे पुराने कानुन - *"Criminal Penal Code"* (CrPC) इस पर विचार करते है. पहले पोलिस ठाणेदार - १५ दिनों का रिमांड अवधी रहा था. जो *"भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता"* (BNSS) अंतर्गत वह अवधी ६० - ९० दिनों तक बढाया गया है. अगर किसी व्यक्ति को *"कोर्ट से जामिन"* मिल भी गया हो तो, पोलिस दोबारा ६० - ९० दिनों तक चौकशी के नाम पर, कभी भी उसे *"लॉक अप"* में डाल सकता हैं. उपर से समुचे *"धारा / कलम / Section"* के नाम ही बदल डाले. वकालत करनेवाले / पोलिस इन्हे भी परेशानी होने वाली है. तो सामान्य लोगों के बारें में क्या कहे ? हमारी पोलिस पहले ही उनके व्यवहार से बदनाम रही है. अब तो उन्हे कानुनी हक मिल गया है. *"Defamation"* केस को Criminal Case कानुन के बाहर भी किया है. किसी भी व्यक्ति का, कोई भी व्यक्ती *"चरित्र हनन"* करता भी हो तो ??? *"पोलिस कस्टडी"* अवधी ९० दिनों तक ??? *"जामिन"* (Bail) सहज नहीं है. अर्थात यह नया कानुन *"पोलिस राज"* की अनुभुती देता है. *"गोरे अंग्रेजो"* के राज में, कुछ तो प्रशासन था. *"काले अंग्रेजो"* ने तो, उस प्रशासन का पुरा बंट्याधार कर दिया है. सरकार के विरोध में बोलने पर भी ??? लेख - कविता - लिखाण करने पर भी ??? इस नये कानुन से, *"कोर्ट के कुछ अधिकार भी पोलिस"* को मिले हैं. सर्वोच्च न्यायालय की नामचीन वकिल *इंदिरा जयसिंग* इन्होने तो, वे तिनो कानुनों को बनने के बाद ही, उस कानुनों का तिव्र विरोध किया था. परंतु *"विरोधी दल / वकिल वर्ग / सामान्य आवाम"* अगर खामोश हो तो, हम क्या करे ???
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▪️ *डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य'*
नागपुर, दिनांक २९ जुलै २०२४
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