👌 *ज्ञानवापी मशिद से लेकर अयोध्या (साकेत) - पंढरपुर - तिरुपति - जगन्नाथ पुरी - प्राचिन भारत की ओर...!*
* *डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७
राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल (सी. आर. पी. सी.)
मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
अयोध्या (साकेत) का *रामजन्मभुमी विवाद* पुर्णत: निपट गया है, यह कहना बेमानी होगा. बौध्द परिवारों की वह दायर याचिका निरस्त हुयी या प्रलंबित है ? यह भी अहं प्रश्न है. वही उस विवादीत केस मे जुडे, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के इमानदारी पर हो, या बुध्दीवाद पर भी, सवाल - ए - निशान लग गये है. उस केस मे किस *"प्रायमा फेसी"* आधार पर, मा. सर्वोच्च न्यायालय ने वह निर्णय दिया है ? यह भी प्रश्न है. और उस विवाद संदर्भ में, *"आंतरराष्ट्रिय न्यायालय"* में हमारा नही जाना, इसके दोषी कौन है ? भारत सरकार, बौध्द - आंबेडकरी वकिल आवाम, हमारे तथाकथित नेता या विचारविद महोदय, या कहे हमारी आवाम भी ??? यह भी प्रश्न है. फिलहाल प्रयागराज का *"काशी विश्वनाथ मंदिर - ज्ञानवापी मशिद"* जमिन (?) का विषय, मा. अलाहाबाद उच्च न्यायालय के अधिन विचाराधीन है. वही हमारे *"भारतीय पुरातत्व विभाग"* द्वारा उस संदर्भ में, उचित अहवाल मंगाया गया. और उस जगह की सर्वेक्षण करने की, अनुमति भी दी सकती है, ऐसा भी न्यायालय ने कहा है. महत्वपुर्ण विषय यह कि, *सन १९९१ का कानुन"* से, धार्मिक अस्तित्व स्वरुप निश्चित नही किया जा सकता, ऐसा कहा गया है. इस कानुन से धर्मांतर - प्रार्थनास्थल यह विषय जुडे हुये है. वही १५ अगस्त १९४७ को अस्तित्वरत प्रार्थना स्थल, धार्मिक स्थल निश्चित करने की, कोई भी प्रक्रिया दिखाई नही दे रही. वही इस निर्णय के विरोध में, मा. सर्वोच्च न्यायालय जाने की चेतावणी भी, *अंजुमन इंतेजामिया मशिद समितीने* एक पत्रक में दी है.
हिंदु धर्मावलंबी कहे या वैदिक धर्म / ब्राम्हणी धर्मवादी उन्होंने, *"प्राचिन काशी - मथुरा - अयोध्या मंदिर"* (?) विषयों के प्रश्न खडे करने से, और मा. न्यायालयों का केवल बढता हस्तक्षेप ही नही तो, उन विवादीत विषयों को हिंदु मंदिरों से जोडना, इन विषयों के कारण, अब हमे *"चक्रवर्ती सम्राट अशोक काल"* में जाना होगा. क्यौं कि, सम्राट अशोक के पहले की *"पुरातन विरासतों"* को, हमे समझने में कठिणाई होंगी. हां हम *"सिंधु घाटी सभ्यता"* को, हम नज़र अंदाज नही कर सकते. हम पहले चलते है - *"पंढरपुर."* बाबासाहेब आंबेडकर इन्होने २५ दिसंबर १९५४ को, *"देहु रोड"* पर *"बुध्द मंदिर"* का निर्माण कर, ढाई हजार की बुध्द मुर्ती रंगुन (बर्मा - म्यानमार) से लायी थी. हमे यह समझना होगा कि, बाबासाहाब ने तब *"बुध्द धर्म"* की दीक्षा ( १४ अक्तुबर १९५६ को लिया) नही ली थी. अर्थात देहु रोड पर बुध्द मंदिर उदघाटन के पश्चात, अपने भाषण में *"पंढरपुर का विठ्ठल का मंदिर - बुध्द मंदिर"* है बताकर, उन्होने वह सिध्द कर देने की बात कही थी. *"विठ्ठल कहे या, विठु महार कहे या पांडुरंग"* इसका मंदिर, क्या ब्राम्हण पुजारी खडे कर सकते है ? *"पुंडलीक"* इस शब्द का अपभ्रंश यह *"पांडुरंग"* है. *"पुंडलिक - पुंडरिक"* का अर्थ *"कमल"* होता है. और वह बुध्द धर्म का प्रतिक है. इस विषय पर, सखोल जानकारी फिर कभी देंगे.
अब हम चलते है - *"अयोध्या"* (उ. प्र.). अयोध्या का मुल नाम - *"साकेत"* है, जो बौध्द धर्म का केंद्र था. *"अयोध्दा"* का अर्थ है - अ + योध्दा" अर्थात साकेत यह शहर *"बगैर युध्द"* से जीता गया था, इसलिए इसका नामकरण *"अयोध्दा"* पड गया. *"मिलिन्द राजे"* (मिनंण्डर) का इस शहर से गहरा संबंध जुडा है. अर्थात अयोध्दा में मस्जिद / मंदिर (?) के उत्खनन में, वहां *"बुध्द की मुर्तीयां"* पायी गयी. और उस आधार पर, बौध्द परिवारों ने याचिका मा. सर्वोच्च न्यायालय में दायर की थी. परंतु *"सर्वोच्च न्यायालय"* के जम़ीर बेचे गये न्यायाधीशों ने, बगैर किसी *"प्रायमा फेसी"* के आधार पर, *"रामजन्मभुमी"* के पक्ष में निर्णय देकर, वहां कुछ जमिन का हिस्सा मुस्लिम पक्षों को भी दिया. बुध्द परिवारों की याचिकाओं पर, निर्णय प्रलंबित रखा गया. अर्थात क्या न्याय देने की सच्ची पात्रता, हमारे न्यायालय के न्यायाधीशों के पास है ? यह संशोधन का विषय है. *"नंगे को खुदा डरे"* यह कहावत यहां यथार्थ है. इस विषय पर भी चर्चा, हम फिर कभी करेंगे.
अब हम चलते है - *"तिरुपति बालाजी मंदिर. "* सबसे पहले हमें वहां स्थित मुर्ती का, सुक्ष्मता से अवलोकन करे. वह मुर्ती *"बुध्द की मुर्ती"* दिखाई देंगी. दुसरी बात वहा कें *"मुण्डन पध्दती"* की भी है, जो बुध्द भिक्खु बनने पुर्व की विधी है. इस मंदिर के संदर्भ में, कुछ किताबें भी लिखी गयी है. वही ओरीसा का *"जगन्नाथ पुरी मंदिर"* भी बुध्द विहार हुआ करता था. यहीं नही आसाम का *" कामाख्या मंदिर"* यह भी बुध्द मंदिर है. नेपाल का *"पशुपतिनाथ मंदिर"* भी वास्तव में, वह चक्रवर्ती सम्राट अशोक की पुत्री चारुमती द्वारा बनवाया गया *"चारुमती स्तुप"* ही है. बुध्द को ही, वे लोग *"पशुपतिनाथ शिव"* कहते थे. और गणपति एवं भैरव ये बौध्दों के द्वारपाल थे. यह जितने सारे मंदिर है, यह चक्रवर्ती सम्राट अशोक द्वारा बनाया जाने का इतिहास है. जहां तथागत बुद्ध को ध्यानप्राप्ती हुयी थी, वह *'बुध्दगया मंदिर"* तक, इन ब्राम्हणी व्यवस्था ने छोडा नही. अब सवाल है, हम कब तक खामोश रहे ? अब हमे भी उठ खडा होना होगा. हमारे अपने अधिकारों के लिए, *"इन सभी प्राचिन बुध्द विहारों का, तथ्य / प्रमाण खोजने होंगे."* और हमारा अपना दावा भी करना होंगा. हमारे वकिलों का भी दायित्व है कि, वे अपनी जबाबदेही निश्चित करे. अगर हम इस गंभिर विषय पर खामोश रहते है तो, हमे कहना होगा कि, *"हमने बातें तो बहुत कि, कस्मे वादे युं निभाने की. बस सही वक्त आने पर, तुमने तो युं टर्न कर डाला."*
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नागपुर, दिनांक ३० दिसंबर २०२३
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