📚 *आधुनिक हिंदी साहित्य के व्युत्पत्ती में प्राचिन बौध्द धम्म लिपी - भाषा - साहित्य का प्रभाव ...!*
*डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७
राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल
एक्स व्हिजिटिंग प्रोफेसर, डॉ बी आर आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ महु म प्र
मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२३
आधुनिक *"हिंदी भाषा - लिपी व्युत्पत्ती"* को समझने के पहले, *"प्राचिन भाषा लिपी"* को हमें समझना होगा. *"पालि प्राकृत"* भाषा की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से, *"हिंदी भाषा - लिपी - साहित्य"* का *"अविर्भाव स्वीकार"* हुआ है. यही नहीं, *"पालि भाषा से ही संस्कृत भाषा का अपभ्रंश है."* इसे समझने के लिये, पालि - प्राकृत इन भाषा के *१० स्वर* / संस्कृत भाषा के *१३ स्वर*/ अपभ्रंश भाषा के *८ स्वर* / हिंदी भाषा के *११ स्वर* को समझना होगा. एवं पालि भाषा में, *"ऋ / ऐ / औ / श / ष"* इन *"संस्कृत शब्दों"* का प्रयोग नहीं मिलता. पालि भाषा में *"विसर्ग"* नहीं मिलता. *सिंध - हडप्पा संस्कृति की लिपी"* को, अब तक समजा नहीं गया है. *"ब्राम्ही लिपी"* का विकास *"इ. पु. ५ वी शति"* में हुआ है. एवं *"इ. पु. पाचवी शति से - इसवी ३५०"* तक, *"ब्राम्ही लिपी"* का प्रयोग काल भी माना जाता है. *बुध्द का जन्म इ. पु. ५६३* में / और बुध्द के लगभग *२३ साल बाद भगवान महावीर*(इ.पु. ५४०) का जन्म होता है. अर्थात *"पालि - प्राकृत भाषा कां कालखंड इ. पु. ५००"* का रहा है. और *"संस्कृत भाषा व्याकरण कालखंड (पाणीनी) इ. पु. ४००"* यह रहा है / अर्थात बुध्द के *१०० - १५० साल* के, बाद में ही आता है. *चक्रवर्ती सम्राट अशोक* का कालखंड *"इ. पु. २६८ - २३२"* (मौर्य वंश का कालखंड इ. पु. ३२२ से १८५) तक रहा है. सम्राट अशोक द्वारा लिखे गये *सभी शिलालेखों* में, *"ब्राम्ही लिपी"*(धम्म लिपी) का ही उल्लेख दिखाई देता है. केवल अयोध्या के *"ज्ञानदेव शिलालेख"* तथा *"सारनाथ शिलालेख"* में ही, थोडा संस्कृत का प्रभाव दिखाई देता है.अर्थात तब संस्कृत यह *"बोली भाषा"* नहीं रही होगी. *"अपभ्रंश साहित्य - आदि हिंदी"* का विकास, इसा - *प्रथम शती से पाचवी शती* तक रहा है. *कालीदास* की रचना *"विक्रमोर्वशीयम्"* में, *"अपभ्रंश भाषा"* (कालखंड इ. पु्. प्रथम शती से पाचवी शती रहा है) का प्रयोग दिखाई देता है. आधुनिक *"देवनागरी लिपी"* का प्रथम स्वरुप इसवी ११०० का / सन १७९६ में इस *"लिपी का प्रारंभ"* रहा है . और भारत सरकार ने इस *"लिपी को ही मान्यता"* दी है. भारत की *"मराठी भाषा सहीत तमाम भाषांओं की जननी, यह ब्राम्ही धम्म लिपी"* ही है. *"ऋग्वेद"* की प्रामाणिक प्रति *"युनेस्को"* को, *"इसवी १४६२"* उपलब्ध करायी गयी है. इसे भी हमें समझना होगा.
*"पाली भाषा व्याकरण"* की सर्व प्रथम, *वैय्याकरण कच्चायन* इन्होने *"४३ ध्वनीया"* बनाने का संदर्भ मिलता है. विचारविद - *प्रा. बलदेव उपाध्याय* इन्होने *पाली व्याकरण* को, तिन शाखा में विभक्त किया है. *"कच्चायन व्याकरण / मोग्गलायन व्याकरण / अग्गवंसस्कृत सद्दनीति."* पाली यह तत्कालीन काल में, मानव जीवन की व्यापक एवं गहन अनुभुतियों का पहिला दर्शन (त्रिपिटक) दिखाई देता है. पालि में दो प्रकार के काव्य दिखाई देते है. *"वर्णनात्मक काव्य / आख्यायनात्मक काव्य."* पालि भाषा का उगम और भावार्थ संदर्भ में, विद्वानों में मतभेद भी रहे है. जर्मन विद्वान *मैक्स बैसलर* ने, पालि शब्द का उगम *"पाटलिपुत्र"* माना है. *"पाटलिपुत्र > पाटलि > पालि."* दुसरे विद्वान *पं. विधुशेखर भट्टाचार्य* इन्होने पालि शब्द की उत्पत्ती *"पंक्ति"* शब्द से बताया है. मराठी का शब्द *"पाळी"* तथा संस्कृत का *"पालन"* शब्द, उसका भाग माना जाता है. *आचार्य बुध्दघोष* ने *"पंक्ति"* शब्द से, पालि शब्द व्युत्पत्ती को नकारा है. *भिक्खु जगदीश* ने भी, इस पर आपत्ती उठायी है. उनके मतानुसार *"पालि > परियाम"* शब्द से माना है. *"सिंहली परंपरा"* में, *मागधि - मगध* की भाषा से मानते है. *प्रा आर डेव्हिस* इन्होने पालि को, इसा पुर्व छटी - सातवी शति की, *"कोसल प्रदेश"* की भाषा माना है. *वेस्टर गार्ड* इन्होने *"उज्जैनी प्रदेश की बोलि भाषा"* माना है. *"अभिधानप्पदिपिका"* में पाली की व्युत्पत्ती में, *"पालेति रक्खतीति पालि |"* का संदर्भ है. चक्रवर्ती सम्राट अशोक के शिलालेख (भाब्रु) में, *"धम्म पलिपाय"* का वर्णन मिलता है. अर्थात *"बुध्द का वचन."* अत: *"पालिपाय शरण"* से ही पालि की व्युत्पत्ती हुयी है. *आचार्य बुध्दघोष* इनके *"विशुध्दीमग्ग / महावंश"* इस ग्रंथ में, *"मागधी"* शब्द को, सभी भाषांतर की *"मुल भाषा"* कही है. इसा पुर्व १४ वी शती में, *बुध्दघोष* के *"अट्ठकथा"* इस ग्रंथ में, पालि का उल्लेख है. वही *दिपवंश* यह ग्रंथ बुध्दघोष के पहले का ग्रंथ है. जहां पालि के दो अर्थ बताये है. वहां *"बुद्ध का वचन"* के रुप में ही संदर्भ मिलता है. *आचार्य बुध्दघोष* इनके समय में, चार प्रमुख बौध्द रचनाकार हुये है. *बोधिसत्व अश्वघोष* (इसवी ८० - १५०) / *आचार्य नागार्जुन* (इसवी ५० - २८०) / *आचार्य वसुबंधु* (चवथी शति से ३८०) / *आचार्य दिग्नाग* (इसवी शती ४८० - ५४०). *बोधिसत्व अश्वघोष* इनके लिखाण में *अपभ्रंश भाषा* का प्रयोग दिखाई नहीं देता. जब कि *कालिदास* इनके लिखाण में,*अपभ्रंश भाषा* का भी प्रयोग दिखाई देता है. अत: *कालिदास* का कालखंड यह *बोधिसत्व अश्वघोष* इनके बाद का ही रहा होगा, यह सत्य स-प्रमाण दिखाई देता है. *भदंत अश्वघोष* इनका लिखाण *"सौंदर्यशास्त्र / मानवशास्त्र / नैतिक वाद / दर्शनशास्त्र / प्रेम भाव"* आदी विचारों का बोध कराता है. जब कि *कालिदास* इनका साहित्य यह *"भोगवाद / अनैतिक वाद"* की ओर ले जाता है. अत: पाली - प्राकृत - संस्कृत का *आद्य कवि* ये *बोधिसत्व अश्वघोष* ही रहे है, *कालिदास* नहीं है. बोधिसत्व अश्वघोष की प्रसिद्ध रचनाएं - *"सौंदरानंद / बुध्दचरित्र"* आदी रही है. पवनी (भंडारा) शिलालेख* में, *"नागस पचनेकायिकस"* (अर्थात - पाच निकायों के ज्ञाता नाग) उल्लेख है. वही *सारनाथ शिलालेख* में, *"भिक्षुस्य बलस्य तैपिटकस्य बोधिसत्वा प्रतिष्ठापितो |"* (अर्थात - तिन पिटकों के ज्ञाता भंते बल ने, बोधिसत्व के प्रतिमा को प्रतिष्ठापित किया) का संदर्भ दिखाई देता है. पुरातत्व विध *लार्ड कनिंगहम* इनके बाद *ओव्हरटेल* इनका योगदान भी महत्त्वपूर्ण है. *सारनाथ* उत्खनन में *ओव्हरटेल* के कारण ही, *"अशोक स्तंभ"* का खोज हुयी. जो *"भारत की राजमुद्रा"* बनी. अर्थात *धम्म लिपी* की व्युत्पत्ती, यह *संस्कृत* भाषा का पहले होने का यह प्रमाण है. तथा *पाली* भाषा से ही *संस्कृत* इस भाषा उगम भी !
पालि प्राकृत भाषा से *"संस्कृत"* भाषा की व्युत्पत्ती समझने के बाद, हमें यह समझना होगा कि, *"प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था"* से ही, *"हिंदी साहित्य"* का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है. *"गार्सा तासी* (१८३९) यह *"अपभ्रंश हिंदी (आदि हिंदी) साहित्य "* के पहिले इतिहासकार माने जाते है. उनके बाद अपभ्रंश हिंदी साहित्य के रचनाकार - *मौलवी करिमुद्दीम (१८४८) / शिवसिंग सरोज (१८८३) / जार्ज ग्रियर्सन (१८८८) / मिश्र बंधु (१९१३) / एडविन ग्रिक्स (१९१७)* आदी का भी उल्लेख है. *"अपभ्रंश भाषा"* के पहिले कवि *सिध्द सरहपाद* (७६९) तथा आखरी कवि *रइधु* (१४०० - १४७९) को माना जाता है. उसके बाद *"अपभ्रंश भाषा"* का अस्त होता है.*"आदि हिंदी भाषा"* का प्रारंभ होता है. *"आधुनिक हिंदी"* की व्युत्पत्ती, यह *पालि प्राकृत भाषा "* से रही है. *बारावी शति* के आधुनिक हिंदी भाषा के पहिले कवि *अब्दुल रहमान (अद्दहमान)* को माना जाता है. उन्होने *"संदेश रासक"* की रचना की. यही नहीं अद्दहमान इन्होने, *"अपभ्रंश - पालि प्राकृत भाषा"* का भी अध्ययन किया है. अद्दहमान इन्होने अपनी जाति *"कोरी - जुलाह"* भी बताया है. मुस्लिम धर्म परिवर्तन के पहले वे *"कोरी* जाती के / मुस्लिम धर्म स्वीकार के बाद उन्हे *"जुलाह"* कहा जाता है. *"कोरी"* जाति का *"कोली"* से रहा है. और *"कोली लोक"* ये प्राचिन *"कोलिय गण"* के थे. अर्थात *सिध्दार्थ गौतम* इनकी पत्नी *"यशोधरा"* इनके कोलिय गण के ! अद्दाहमान इनके काल में ही *शालीभद्र सुरी* (११८४) होने का जिक्र है. उसके बाद *अमिर खुसरो (१२५३ - १३२५) / हंसाउली (१३७०) / संत कबीर (१३९९ - १५१२) / रामानंद (१४५०) / कालमितुल हकायत (१५८०) / नाभादास (१५८५) / बनारसीदास (१६०१) / गुरु अर्जुन देव - आदि ग्रंथ (१६०४) / गोसावी तुलसीदास (१५३२ - १६२३)* इत्यादी.... हिंदी रचनाकार का उल्लेख है. फिर सन १६४५ के बाद *"उर्दु भाषा"* का आरंभ होता है. उसके बाद सन १७९६ में *"देवनागरी लिपी"* का प्रारंभ रहा है. और भारत सरकार ने *"देवनागरी लिपी"* को, अपनी अधिकृत भाषा माना है. १ मई १९५० में *"हिंदी राजभाषा हिंदी साहित्य संमेलन "* की स्थापना !
*"मराठी भाषा"* संदर्भ में जब हम चर्चा करते है, तब रायगड जिल्हा स्थित *"अक्षी"* (ता. अलिबाग) ग्राम में *"दो मराठी शिलालेख"* ही (इसवी १०१२) का संदर्भ दिखाई देता है. वही सोलापुर जिला स्थित *"हत्तरसंग कुडल"* (इसवी १०१८) का शिलालेख तथा कर्नाटक राज्य के *"श्रवणबेलगोळ"* (इसवी १०३९) शिलालेख कों संदर्भ रहा है. अर्थात अक्षी इस ग्राम का शिलालेख ही मराठी भाषा का पहिला शिलालेख है. *राजे शिवाजी महाराज* कालखंड (१६३६ - १६८०) में लिखे गये शिलालेख, यह *"संस्कृत भाषा"* के दिखाई देते है. अर्थात उस काल में महाराष्ट्र में, *"ब्राह्मणी व्यवस्था"* की जडे, ये मजबुत होने का प्रमाण दिखाई देता है. *संत नामदेव महाराज* - शिंपी (१२७० - १३५०) / *संत जनाबाई* - शिंपी (१२५८ - १३५०) / *संत चोखामेळा* - महार (१२७३ - १३३८) यह संत *"मराठी भाषा"* के *"आद्य कवि"* रहे है. परंतु ब्राम्हणी व्यवस्था ने *"मुकुंदराज* - ब्राह्मण (१२ वी शती) / *संत ज्ञानेश्वर* - ब्राह्मण (१२७५ - १२९६) इन्हे *"मराठी भाषा आद्य कवि"* घोषित किया है. यही नहीं उनके बाद हुये कवि - *नरहरी सोनार* (११९३ - १३१३) / संत चोखामेळा परिवार के *संत सोयराबाई* - पत्नी, *संत निर्मलाताई* - बहन, *संत कर्ममेळा* - भाई (१४ वी शति) / *संत एकनाथ महाराज* - ब्राह्मण (१५३३ - १५९९) / *संत तुकाराम महाराज* (१६०८ - १६५०) / संत तुकाराम महाराज के लेखनिक *संत जगनाडे महाराज* (१६२४ - १६८८) इनके *"मराठी भाषा"* योगदान की, कोई दखल नहीं ली गयी. क्यौं कि, वे सभी संत कवि *तथागत बुद्ध* अर्थात *"पंढरपुरी विठोबा"* को समर्पित थे. यही नहीं *"श्रमण परंपरा / नाथ परंपरा / गोरख परंपरा"* कवि संत भी, बुध्द के प्रति समर्थित थे. इस संदर्भ में हम फिर कभी चर्चा करेंगे. अर्थात *"मराठी भाषा साहित्य"* पर भी, बुध्द प्रभाव का इतिहास है. भारत के समस्त *"भाषा की जननी"*, यह *"पालि प्राकृत"* भाषा ही है. और चक्रवर्ती सम्राट अशोक इनके *"ब्राम्ही लिपी"* शिलालेख इसकी साक्ष देते है. जय भीम !!!
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▪️ *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य'*
नागपुर, दिनांक २१ अगस्त २०२४
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