👌 *विध्वंस! विध्वंस!! विध्वंस!!!*
*डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य'*
मो. न. ९३७०९८४१३८
पृथ्वी का जन्म कहे या निर्माण
इस गंभिर विषय पर चर्चा में
हर कोई धर्म ग्रंथ में
हर किसी न किसी धर्म देव ने
पृथ्वी के निर्माण की
अपनी ही कहानी बयाण की है
अब प्रश्न खडा हुआ कि
पृथ्वी का असली निर्माता कौन है ?
पृथ्वी के मां- बाप कौन है...?
वही बुध्द कहते है कि
न हेत्थ देवो ब्रम्ह
संसारस्स अत्थि कारको
बुध्दधम्मा पवत्तन्ति
हेतुसंभारपच्चया ति
अर्थात विश्व का
कोई भी कर्ता नही है
सृष्टी के नियम अनुसार
अपने आप ही
सृष्टी का चक्र सुरु रहता है...
सृष्टी पर चमत्कार संदर्भ में
बुध्द कहते है कि
कम्मस्स कारको नत्थि
विपाकस्सच वेदका
सुध्दधम्मा पवत्तन्ति एव
एतं सम्मादस्सन
अर्थात कोई कर्ता नही है
वस्तु घटक का चक्र
स्वयं घुमते रहता है
यही सत्य वस्तुस्थिति है...
आत्मा इस गंभिर विषय पर
बडा ही विवाद दिखाई देता है
बुध्द कहते है कि
अगर आत्मा अजर अमर है
तो विभक्त भाव की कल्पना ?
बडा ही प्रश्न कर जाता है
अर्थात यह अपरिवर्तनशील वस्तु
मर्त्य शरीर में कैसे रह सकती है
A permanent thing
Cannot reside in
an impermanent body...
चित्त के संदर्भ में
बुध्द कहते है कि
चित्तेन नियतो लोको
अर्थात सृष्टी - संसार ही
चित्त की उपज रही है
चित्त ही सर्वोपरि है
अत: चित्त के
विशेष गुण अध्ययन से
विश्व के समस्याओं का
हमे समाधान खोजना है...
सब्ब पापस्स अकरणं
इस बुध्द वचन पर
अक्रियावाद आरोप होने पर
बुध्द कहते है कि
कोई भी कर्म ना करना
यह अक्रियावाद है
परंतु अकुशल कर्म ना करना
यह अक्रियावाद कैसे ???
कुशल कर्म करना है
सद्गुण प्राप्त करना है
स्वयं का अंतकरण शुध्द करना है
यह तो क्रियावाद है...
संपत्ती कहे या धन संदर्भ में
बुध्द ने कहा है कि
महासंपत्ति संपत्ता
यथा सत्ता मत्ता इथ
तथा अहं मरिस्सामि
मरणं मम हेस्सति
अर्थात जिस पुरुष को
बडी संपत्ति प्राप्त हुयी है
वह धनवान पुरुष भी
इस संसार से जाने वाले है
मै भी मरणेवाला हुं...
बुध्द ने कहा है कि
सब्बे सत्ता सुखी होन्तु
सब्बे होन्तु च खेमिनो
सब्बे भद्राणि पस्सन्तु
मा कञ्चि दुक्खमागवा
अर्थात सभी प्राणी सुखी हो
सभी का कल्याण हो
सभी को सन्मार्ग मिले
किसी जन को दु:ख ना मिले
इस पावन भाव को कहते हुये
बुध्द कहते है कि
तस्मा हि भूता निसामेथ सब्बे
मेतं करोध मानुसिया पजाय
अर्थात हम सभी तो एक ही है
अत: हमे प्रजा पर
प्रेम की वर्षा करना है...
पर आज समस्त संसार में
ये मानव प्राणी फिर भी
वैरत्व करते आया है
वैरत्व को जगाते आया है
वैरत्व को बढाते रहा है
बुध्द को हम छोड चले
महायुध्द की ओर
बढते जाता है, बढते जाता है
विध्वंस ! विध्वंस !! विध्वंस...!!!
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नागपुर, दिनांक २७ अक्तूबर २०२३
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