✍️ *जाती आरक्षण से आर्थिक आरक्षण तक सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय - एक द्वंद्व विवाद...!*
*डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७
राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल
मो.न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
अभी अभी हमारी सर्वोच्च न्यायालय नें, *"आर्थिक दृष्टी से दुर्बल घटक वर्ग को, शैक्षणिक तथा सरकारी नोकरी में १०% आर्थिक आरक्षण को, सर्वोच्च न्यायालय के पाच न्यायमूर्ती घटनापीठ ने, ३ -२ इस बहुमत के आधार पर, घटनात्मक वैधता प्रदान की है."* महत्वपुर्ण विषय यह है कि, इस १०% आर्थिक आरक्षण से, अनुसुचित जाती / जमाती / ओबीसी वर्ग को, इसका लाभ देने से वंचित रखा गया है. मा. सर्वोच्च न्यायालय के उस पाच न्यायमुर्ती पीठ में - *सरन्यायाधीश उदय ललीत, न्या. रविंद्र भट, न्या. दिनेश माहेश्वरी, न्या. बेला त्रिवेदी, न्या. जे. बी. पारडीवाला* इन पाच मान्यवरों का समावेश था. सबसे अहमं सवाल यह है कि, *इस पाच न्यायमूर्ती पीठों में, अनुसुचित जाती / जमाती / ओबीसी / अल्पसंख्यक वर्ग समुह के, न्यायाधीशों का समावेश था / है या नहीं ?* और अगर नही हो तो, *"समानता"* इस भाव को, हम संविधान सम्मत कैसे कह सकते है ? *क्या यहां अनुसुचित जाती / जमाती / ओबीसी / अल्पसंख्यक इस समुदाय वर्ग समुह के लोग, सर्वोच्च / उच्च न्यायालय के न्यायाधीश बनने की पात्रता नही रखते ?* अगर न्याय व्यवस्था में, इन सभी समुहों को योग्य प्रतिनिधित्व नही दिया जाता हो तो, हम सम्यक न्याय की अपेक्षा, कैसे कर सकते है ? वही सर्वोच्च न्यायालय हो या, उच्च न्यायालय हो इनके द्वारा दिये गये बहुत से निर्णय, यह विवादीत रहे है. *क्या उन सभी विवादीत निर्णय की समिक्षा की गयी है ?* या उस विवादीत निर्णय पर संशोधन बदलाव किया गया है ? फिर वो निर्णय *"अयोध्या रामजन्म भुमी"* का भी है. वह जगह बौध्द संस्कृती की ही विरासत रही है. इतिहास गवाह है. परंतु उस संदर्भ में, मा. सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कुछ भी नही कहां है. वही उस निर्णय में *"प्रायमा फेसी"* का भी बडा सवाल है.
हमारे *"भारत के संविधान"* में, समानता - न्याय को अधोरेखीत किया गया है. तथा *"अनुसुचित जाती / जमाती / ओबीसी प्रवर्ग को "जाती आरक्षण" देकर, सवर्ण जाती समकक्ष उस प्रवर्ग को लाने का, उदात्त उद्देश रखा गया था."* अर्थात वह आरक्षण बरसों से उन समुहों पर, किये गये अन्याय को / उन्हे दलदल में धकलने के कारण, उन्हे सवर्ण समुहों के समकक्ष लाने का एक माध्यम है. *आरक्षण यह कोई "सरकारी रोजगार हमी योजना" नही है.* नही तो भारत के संविधान मे *"रोजगार अधिकार"* (Rights of Employment) इस अधिकार को भी, सम्मिलीत किया गया होता. परंतु भारत संविधान निर्माता *डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर* इन्होने वह उदात्त अधिकार सम्मिलित नही किया. क्यौ कि, भारत में *"लोकसंख्या नियंत्रण"* यह बडी समस्या थी. डॉ आंबेडकर ने मा. रोहन दादा इनकी माध्यम से, *"लोकसंख्या नियंत्रण बील"* लाने का अथक प्रयास किया था. परंतु पुराणवादी सवर्ण समुह नेताओं ने, उस बिल का कडा विरोध किया था. अर्थात इस मागास वर्ग समुदाय पर, अन्याय करनेवाला *"सवर्ण समुह प्रवर्ग"* था. जो आज भी सत्ता व्यवस्था पर बैठा है. न्याय व्यवस्था पर बैठा है. मिडिया व्यवस्था पर बैठा है. प्रशासन व्यवस्था पर बैठा है. *फिर उन सवर्ण वर्ग से, हम न्याय की अपेक्षा कैसे कर सकते है ?* क्या हम यह माने की, *"सवर्ण वर्ग की मां यह गर्भ मेरिट देने की अधिकारी है ?"* और भारत के समस्त *"मागास वर्ग समुहों के मां ओं में गर्म मेरिट देने का अभाव है."* हम एक बार यह संदर्भ मान भी लेते है. फिर *"अखंड - विशाल - समृध्द भारत"* को खंड - खंड करनेवाला / भारत को गुलाम बनानेवाला / प्राचिन भारत - आज के भारत से गद्दारी करनेवाला / न्याय - समानता ना देनेवाला / भारतीयों आवाम पर अन्याय करनेवाला / भारत का विकास रोकनेवाला / आज भारत को आर्थिक गुलाम बनानेवाला / भारत को पुंजीवाद में घुसडनेवाला, यह *"सवर्ण वर्ग समुदाय"* है. फिर इन सभी दोषों का / पापों के, *"दुषित गर्भ मेरिट की अधिकारी भी सवर्ण वर्ग मां है."* इसे उन्हे स्विकार करना होगा. और यह सत्य कहना होगा.
अब हम सर्वोच्च न्यायालय के *"आर्थिक आधार पात्रता"* इस संदर्भ में चर्चा करेंगे. सर्वोच्च न्यायालय ने आर्थिक वंचित घटक की *"वार्षिक आय रू. ८ लाख"* (प्रतिमाह - ६६,६६७/-) बतायी है. यहां लोगों को, *"१० दस हजार* की नोकरी मिलना कठिण है / उतनी आय पाने के लिए संघर्ष करना पडता है. तों सोचो, *"यह निर्णय किस विशेष समुहों के फायदे के लिये दिया गया है."* वही अनुसुचित जाती / जमाती वर्ग समुहों की वह *"वार्षिक आय"* हो तो, वह विद्यार्थी शिष्यवृती पाने का भी अधिकारी नही होता. ओबीसी समाज के लिए, *"क्रिमी लेयर"* यह चाबुक, अधिकार रोकने के लिए बैठा ही है. इससे हम अंदाजा लगा सकते है कि, *सदर निर्णय देनेवाले मा. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश महोदय, जमिनी हरकतों से कितने सारे परिचीत है ?* या उनका मेरिट भारत की आर्थिक व्यवस्था के प्रती गहन कितना है. या वे न्यायाधीश महोदय, भारत की गरिबी कितने रूबरु है ? क्या यह निर्णय सही रूप से आर्थिक वंचित घटक के लिए, बडा फायदेमंद होगा ? अर्थात हमारे *समस्त आर्थिक वंचितों वर्गों* को, पुनश्च अधिकारों से वंचित करने का / गुलाम बनाने का, यह एक *"काला निर्णय"* है. दुसरे सही अर्थो में *"काला कानुन"* है. *"गोरे अंग्रेज तो, भारत छोडकर चले गये. अब काले अंग्रेजों का, काला राज चल रहा है."*
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसके पहले, *"जाती आरक्षण"* विषय हो या, *"एकल पद आरक्षण""* विषय हो, इस पर विवादीत निर्णय दिये है. वही भारत आजादी के इन ७५ सालों में, ना ही हमारे देश में, *"भारत राष्ट्रवाद मंत्रालय / संचालनालय"* बना, ना ही *"भारत बजेट"* में प्रावधान...! हां, देव - धर्म विषय में, बजेट में प्रावधान होता है. फिजुल खर्चों के बारें में, भ्रष्टाचारों के बारे में क्या कहे ? *"भारतीय भावना",* हम लोगों के दिलों में नही जगा पाये है. हां, धर्मांधी भावना जरुर जगा पाये है. एवं भारत में *"जातीगत जनगणना"* नही हो पायी है. जो जाती आरक्षण का मुख्य आधार है. इस पर न्यायालय का रूख महत्वपुर्ण है. *"जन गन मन अधिनायक जय हें...!"* यह राष्ट्रगान तो, अंग्रेजों की गुलामी का पुर्णत: प्रतिक है. जो हम अभी तक नही बदल पाये है. *"वंदे मातरम्...!"* यह कोई भारत देशभक्ती का गीत नही है. वह *"दुर्गा देवी"* की महिमा पर लिखा गीत है. उसे राष्ट्रगान का दर्जा देने की बात होती है. इन सभी देश ज्वलंत प्रश्नों पर, हमारी न्यायालय मौन है. वही हमारे *"भारत का संविधान"* यह सर्वोच्च न्यायालय को, *"वॉच डॉग"* के रुप में देखती है. परंतु उस दिशा मे, हमारी यह न्यायालय स्वयं सज्ञान लेकर, त्वरीत निर्णय देते हुये हमें नज़र नही आती. *मोहनदास गांधी* ने तत्कालिन राजनीति पर व्यंग कसते हुये, *"राजनीति को वेश्यालय कहा था."* प्राचिन भारत के *भर्तृहरी* इन्होने भी, राजनीति को वेश्या कहा है. संघवाद के सरसेनापती *के. पी. सुदर्शन* ने, तत्कालिन भाजपा सशक्त नेता *लालकृष्ण आडवणी* के पाकिस्तान संदर्भ पर, राजकिय नेता ओं को वेश्या कहा था. अगर *मोहनदास गांधी* आज जिवीत होते, और *"भारतीय न्याय व्यवस्था"* की यह बे-हालात देखकर, शायद दु:ख से यह कह ना देते कि, *"भारत की न्याय व्यवस्था, यह वेश्यालय स्वरुप ही है...!"*
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