🇪🇬 *भारत - देश बनाम राष्ट्र एवं द्वि-राष्ट्र सिध्दांत और डॉ. आंबेडकर...!*
*डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य'* नागपुर १७
राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल
मो.न. ९३७०९८४१३८ / ९२२५२२६९२२
भारत को हम *"देश"* (Country) कहे या, *"राष्ट्र"* (Nation) कहे...? यह सब से बडा प्रश्न है. वही जब हम, स्कुल में प्रतिज्ञा लेते थे / है, तब हम *"भारत मेरा देश है. सभी भारतीय ...(!)"* यह हम से बोला जाता था. वही *"भारत का संविधान"* मे, अनुच्छेद १ में अंग्रेजी में स्पष्ट लिखा है कि, *"Name and territory of the Union - India, that is Bharat, shall be a Union of States."* अर्थात भारत यह *"राज्यों का संघ है."* हमें यह भी समझना बहुत जरुरी हो गया कि, देश और राष्ट्र यह संकल्पना, बिलकुल भिन्न है. वही भारत के प्रधानमन्त्री / मंत्रीगण / विरोधी दल नेता / राजकिय दल के नेता लोग, जब भारत को *"हिंदुस्तान"* कहते हो तो, तब वे *"भारत के संविधान "* की तोहिम कहते है. तो भारत संविधान की, खुले आम तोहिम करनेवालों को, क्या *"देशभक्त"* (राष्ट्र - यह शब्द नही है) कहा जा सकता है...? यह आप सभी को, मेरा खुला सवाल है. अर्थात वो *"गद्दार"* है. वो *"राष्ट्रद्रोही"* (यहा "राष्ट्र" शब्द आया है) है. कभी *"देशद्रोही"* शब्द का भी जिक्र आता है. यहां भी हमे, *"देश एवं राष्ट्र"* शब्द की अलगता ही दिखाई देती है. या वे दोनो ही शब्द, समानार्थक वाची है ? क्या हमारे देश की *मा. सर्वोच्च न्यायालय*, इस शब्द द्वंद्वता को न्याय दे पाएगी...?
अभी हुये संसद अधिवेशन में, मैने राहुल गांधी / नरेंद्र मोदी और अन्य बहोत नेताओं के भाषण सुने है. राहुल गांधी ने, भारत में जो *"दो राष्ट्र"* होने की, बातें कही थी या, *"युनियन एवं स्टेट"* संदर्भ में, बातें कही थी. वो विचार राहुल गांधी की *"खुद की थेअरी"* नही है /थी. यह हमे समझना बहुत जरूरी है. हां, ठिक है कि, वे संदर्भ *"बहुत उचित"* थे. परंतु राहुल गांधी द्वारा भाषण में, बार बार *"हिंदुस्तान"* कहना, यह उसकी नादानी भी दिखाई दी. राहुल की तुलना में, नरेंद्र मोदी का भाषण (उत्तर) देखा जाएं तो, वो *"बहुत ही थिल्लर"* था. हमे लग रहा था कि, हम एक बिन-अकल वक्ता का भाषण सुन रहे है.
*R.S.S.* (Royal Secret Service), जो बाद में, *"राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ"* के नाम पर बदल कर गया, इसकी बुनियाद २७ सितंबर १९२५ को, लाल झेंडे के प्रभाव में हुयी. परंतु डॉ. आंबेडकर इनका सामाजिक आंदोलन प्रवेश, *"बहिष्कृत हितकारिणी सभा"* को २० जुलै १९२४ को स्थापित कर, १९२७ में मिलिटरी बेस्ज *"समता सैनिक दल"* की बुनियाद को, हमें समझना बहुत जरूरी है. संघवादी (द्वितीय) गोळवलकर गुरुजी की १९३९ में लिखी गयी, *We or Our Nationhood Defined* (हम कौन अर्थात हमारी राष्ट्रियता मिमांसा) यह पुस्तक *"राष्ट्रवाद (?)"* की बुनियाद नही है. ना ही वे *"द्वि-राष्ट्र सिध्दांत"* के उदगाता है. उनका राष्ट्रवाद - *"भारत राष्ट्रवाद"* कभी रहा ही नही. कट्टर धर्मांधवाद - *"हिंदु राष्ट्रवाद "* के माध्यम से, भारत में *"देववाद"* की जड़े मजबुत करना, यही उनका मुख्य उद्देश था. अर्थात भारत की सत्ता पर, ब्राम्हणी सत्ता की एकाधिकारशाही...! *"ना ही SC / ST / OBC कभी हिंदु थे."* अंग्रेज सत्ता काल में, अधिकार प्राप्ती के लिए, बनाया गया वो शेड्युल्ड था. वही *"हिंदु धर्म"* संदर्भ में डॉ. आंबेडकर कहते है, *"भारत का धर्म, पहले से ही हिंदु धर्म था, यह विषय मुझे मान्य नही है. हिंदु धर्म यह सबसे बाद, विचारों के उत्क्रांती के पश्चात निर्माण हुआ. वैदिक धर्म के प्रचार के बाद, तिन बार धार्मिक परिवर्तन दिखाई देते है. वैदिक धर्म का रूपांतर, ब्राम्हणी धर्म में हुआ. और फिर ब्राम्हणी धर्म का रूपांतर हिंदु धर्म में हुआ."* (कोलंबो, ६ जुन १९५०) अर्थात ब्राम्हणी धर्म ही हिंदु धर्म है. *"भारतीय संविधान"* के अनुच्छेद ३४० / ३४१ / ३४२ में केवल अनु. जाती / अनु. जनजाती / मागासवर्गीय जाती के *"स्थिती का अवलोकन करने आयोग गठण"* का उल्लेख है. ब्राम्हण समुह तो सामान्य वर्ग में निहित है.
*"भारतीयता"* संदर्भ में डॉ. आंबेडकर खुलकर कहते है कि - *"भाषा, प्रांतभेद, संस्कृती आदी भेदनीति मुझे मंजुर नही. प्रथम हिंदी, बाद में हिंदु या मुसलमान यह विचार भी मुझे मंजुर नही. सभी लोंगो ने प्रथम भारतीय, अंततः भारतीय, भारतीयता के आगे कुछ नही, यही मेरा विचार है."* (मुंबई, १ अप्रेल १९३८) और संघवादी गोलवलकर गुरुजी १९३९ में, अलग विचारधारा की बातें करते है. इसे भी हमे समझना जरूरी है. फिर डॉ. आंबेडकर *"राष्ट्रवाद"* पर कहते है, *"प्राचिन भुतकाल में पुजा करना ही, यह राष्ट्रवाद रहा होगा तो, वह कामगार वर्ग को स्विकार्ह नही. राष्ट्रवाद यह कालानुरुप होना चाहिये. अगर वो जीवन के पुनर्निर्मिती के बिच आता हो तो, वह भी कामगार वर्ग को नही चाहिये. कामगार वर्ग की ईच्छा आंतर-राष्ट्रियवाद की है. यहां राष्ट्रवाद सब कुछ नही है. अंतिम ध्येय प्राप्ती का, वो केवल एक साधन है."* (ऑल इंडिया रेडियो, १ जनवरी १९४३) डॉ. आंबेडकर इनके राष्ट्रवाद संदर्भ में, इस भाषण को हम किस रुप में देखना होगा ? यह बडा प्रश्न है.
२६ जनवरी १९५० को, भारत यह प्रजासत्ताक देश बना. फिर भी *"मुलभुत अधिकारों का उल्लंघन"* होने पर, डॉ. आंबेडकर कहते है, *"मुलभुत अधिकारों का अगर उल्लंघन होता हो तो, वहां बिलकुल ही माफी नही हो. और सभी संसद सदस्यों ने, अपनी व्यक्तिगत निष्ठा बाजु में रखकर, उस का विरोध करना चाहिये. परंतु दु:ख से कहना पडता है कि, इस समीक्षात्मक दृष्टी का अभाव है."* (केंद्रिय विधीमंडल, १९ मार्च १९५५) उस काल की राजकिय स्थिती, और आज के स्थिती में क्या बदलाव हुआ है ? वह स्थिती और मजबुत हुयी है. सरकार कैसी हो ? इस संदर्भ में भी डॉ. आंबेडकर कहते है, *"जो सरकार सही और शिघ्र निर्णय लेकर, उसका अमल नां करता हो तो, उसे सरकार कहने का कोई भी नैतिक अधिकार नही है. यही मेरी धारणा है."* नरेंद्र मोदी सरकार की *"कृषीबील"* पर, तानाशाही दिखाई दी. *"नोटाबंदी"* करते समय, उचित व्यवस्था का पुर्ण अभाव था. *"आभासी चलन"* को, मोदी सरकार की एक प्रकार से मान्यता दी. सरकारीकरण का *"खाजगीकरण "* होना, क्या यह सभी *"मेरिट सरकार के उत्तम लक्षण"* कहना होगा...? यह प्रश्न है. भारत की वह व्यवस्था को देखकर, डॉ. आंबेडकर उद्विग्न हो जाते है. और कहते है कि, *"सही कहा जाएं तो, अपने देश में दो अलग अलग राष्ट्र दिखाई देते है. एक राष्ट्र है - सत्ताधीश वर्ग का, तो दुसरा राष्ट्र है - जो लोगों पर, शासन किया जा रहा है उनका. सभी के सभी मागासवर्गीय, यह दुसरे वर्ग के, राष्ट्र के घटक है."* (राज्यसभा, ६ सितंबर १९५४) अर्थात भारत, आज द्वि-राष्ट्र स्थिती से गुजर रहा है.
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