👌 *HWPL (H.Q.: Korea) इस विश्व स्तरीय आंतरराष्ट्रिय संघटन की ओर से, २६ जुन २०२१ को झुम पर आयोजित, "आंतरधर्मीय परिसंवाद" कार्यक्रम...!*
* *डा. मिलिन्द जीवने,* अध्यक्ष - अश्वघोष बुध्दीस्ट फाऊंडेशन, नागपुर *(बुध्दीस्ट एक्सपर्ट / फालोवर)* इन्होंने वहां पुछें तिन प्रश्नों पर, इस प्रकार उत्तर दिये...!!!
* प्रश्न - १ :
* *क्या आप के शास्त्र में, विश्वासीयों के सृष्टिकर्ता या प्रबुध्द परमात्मा की योजना वा लक्ष के बारे में, कोई सामग्री दर्ज है?*
*** बुध्दीझम की विचारधारा सें, "सृष्टिकर्ता या परमात्मा की योजना वा लक्ष के बारे में, कोई सामग्री दर्ज है...!" इस जटील प्रश्न का उत्तर *"केवल हां या नां"* देना, यह उचित नहीं होगा. अर्थात हां या नां यह उत्तर देकर, उस प्रश्न को न्याय देना, यह संभव भी नही होगा. अत: इस प्रश्न का उत्तर देते समय, बुध्द के मतानुसार *"सृष्टी में कौन से वस्तुओं का अस्तित्व नहीं है"* इस विषय पर, आप का लक्ष मै केंद्रित करना चाहुंगा. तथागत बुध्द ने, सृष्टी में निम्न लिखे *"तिन वस्तुओं"* का अस्तित्व, कभी माना नही...!
१. सृष्टी में अजर, अमर, सचेतन वा अचेतन कुछ भी नहीं है.
२. संस्कार नित्य (अर्थात कभी भी नाश न होनेवाला) नही है.
३. परमार्थत: कोई जीव वा आत्मा यह वस्तु नही है.
बुध्द ने ईश्वर तथा शरिर में आत्मा के अस्तित्व को नकारा है. मानव का शरिर *"पृथ्वी, आप, तेज एवं वायु"* इन "चार महाभुतों" से बना है. और उनका कार्य *"चेतना"* (Vitality) से सदोदित चालु रहता है. और मानव की जीवित क्रिया शुरू रहती है. नैसर्गिक नियम के अनुसार, जब *"चेतनाशक्ती"* शरिर से निकल जाती है, तब शरिर थंडा होने लगता है. और मृत्यु हो जाती है. चारों ही महाभुत पृथ्वी, आप, तेज एवं वायु यह निसर्ग के समगुण धर्म में विलिन हो जाता है. उचित परिस्थिती के आधार पर, पिता का विर्यजंतु एवं माता का रजकण का संयोग हो जानेपर, चेतना का उदय हो जाता है. और जीवन की निर्मिती होती है. और वह एकत्र आएं अणू कण, यह निसर्ग के पहले के समान ही, अणु कण होते है.
शरिर में आंखे, कान, नाक, जिव्हा एवं त्वचा इन पांचो पंचेद्रियो द्वारा रूप देखना, वास लेना, शब्द श्रवण करना, रस आस्वाद लेना, स्पर्श करना यह बोध होता है. स्पर्श, वेदना, संज्ञा, चेतना एवं एकाग्रता एक के बाद एक उत्पन्न होती है. यह सभी भाव, एकमेक के सहयोग से उत्पन्न होते है. यह जाननेवाला कोई ज्ञाता आत्मा का अस्तित्व नही है. अर्थात इस शरिर में नाम एवं रुप ही है. आत्मा का निवास कही भी नहीं है. नाम रुप - पर एक गाथा है.
"नामं च रुपं च इथ अत्थि सच्चतो
न हेत्थ सत्तो मनुजो इव अभिसंखातं
दुख्खस्स पुञ्ञो विणकठ्ठसदिसो |"
(अर्थात : *"नाम - रुप* की यह जोडी, एकमेक पर, आश्रित होती है. जब एक भंग होती है. तब संबध के कारण दुसरी भी भंग होती है. और मृत्यु आता है! विसुध्दीमग्ग)
अत: *"आत्मा हो या परमात्मा तथा ईश्वर कल्पना"* इस भाव को, बुध्द ने सिरे से नकारा है. *"सृष्टी का निर्माण* यह एक नैसर्गिक प्रकिया थी. जीसे ईश्वर से जोडना कदापी उचित नही. मानव का अस्तित्व पृथ्वी निर्माण के कई साल वर्षोबाद हुआ. मानव तब नग्न अवस्था में रहता था. कपडों का निर्माण / स्वर्णादी धातु का शोध, वह कई सालों बाद की अवधारणा है. देव - देवताओं द्वारा वस्त्र / अलंकार पहनना, अवजार का वापर, यही उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है. कोई *"सृष्टिकर्ता भगवान"* फिर नग्न क्यौं नहीं...? अत: इस संदर्भ में, कोई सामग्री दर्ज होने का, कोई भाव बनता ही नही.
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* प्रश्न - २:
* *क्या आप के शास्त्रों में, शत्रुओं या दृष्ट प्राणियों के बारे में, कोई सामग्री दर्ज है, जो उन योजनाओं या लक्षों को प्राप्त करनें में, बाधा डालते है...!*
*** तथागत बुध्द *"शत्रुता / वैरता"* भाव संदर्भ में कहते है -
"न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं |
अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मं सनन्तनो ||"
(अर्थात : वैर / शत्रुता करने से, वैर कभी शांत नही होता. अवैर से, वैर शांत होता है. यही संसार का नियम है. यही सनातन धर्म है.)
धम्मपद में *"दृष्ट प्राणि / पापी मनुष्य* के संदर्भ में लिखा है. -
"इध सोचति पेच्च सोचति
पापकारी उभयत्थ सोचति |
सो सोचति सो विहञ्ञति
दिस्वा कम्मकिलिद्ठमत्तनो ||
(अर्थात : पापी मनुष्य इस लोक में, शोक करता है. मृत्यु के पश्चात, परलोक में भी शोक करता है. अपने किये कुकर्मो को देखकर, शोक करता है. और पिडित होते रहता है.)
*"दृष्ट प्राणि या पापी मनुष्य"* संदर्भ में, धम्मपद में लिखा है. -
"इध तप्पति पेच्च तप्पति
पापकारी उभयत्थ तप्पति |
पापं मे कतंति तप्पति
भिय्यो तप्पति दुग्गतिङ्गतो ||
(अर्थात : पापी मनुष्य / दृष्ट प्राणि इस लोक और परलोक दोनों जगह सन्ताप करता है. मैने पाप किया, ऐसा सोचकर सन्तप्त होता है. उसके परिणाम से दुर्गति को प्राप्त होकर, अधिक दु:खी होता है.)
*"दृष्टता / पाप"* संदर्भ में "धम्मपद" में लिखा है. -
"पापश्चे पुरिसो कयिरा न तं कयिरा पुनप्पुनं |
न तम्हि छन्दं कयिराथ दुक्खो पापस्स उच्चयो ||
(अर्थात :- मनुष्य से यदि पाप हो जाय तो उसे बार बार ना करे. उसमें रत ना हो. क्यौ कि, पाप का संचय दु:खदायक होता है.)
धम्मपद में *"बुरे मित्र / पापी मित्र / दृष्ट प्राणि"* की संगत ना करने की बात कहते हुये, एक गाथा कही है. -
" न भजे पापके मित्ते न भजे पुरिसाधमे |
भजेथ मित्ते कल्याणे भजेथ पुरिसुत्तमे II"
(अर्थात : - बुरे मित्रों का साथ न करे, न अधम पुरुषों का सेवन करे. अच्छे मित्र की संगति करे. उत्तम पुरुषों की संगति करें.)
वही धम्मपद में *"अच्छे / शुभ कर्म करनेवाले"* मनुष्य के बारें में लिखा है.-
" इध मोदति पेच्च मोदति
कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति |
सो मोदति सो पमोदति
दिस्वा कम्माविसुध्दिमत्तनो ||"
(अर्थात :- शुभ कर्म करनेवाला मनुष्य दोनो जगह प्रसन्न रहता है. यहां भी और परलोक में भी. अपने शुभ कर्मो को देखकर, वह प्रमुदित, उल्लासित होता है. और परलोक में भी सुखी होता है.)
अंत में *"शत्रुता या वैरता / शत्रुओं के बारे में / दृष्ट प्राणि या पापी मनुष्य"* के अकुशल कामों के परिणाम / बाधाओं के बारे में, बुध्द ने बहुत अच्छा वर्णन किया है. वही अच्छे कर्म / शुभ कर्म करनेवाले मनुष्यों के अच्छे फल की बातें भी कही है. अर्थात हमे शत्रु मानसिकता की भावना / दृष्ट प्राणियों की दुष्कर्म मानसिकता से, हमे बहुत दुर रहना होगा.
* * * * * * * * * * * * * * * *
* *प्रश्न - ३:
* *आप के शास्त्र में, क्या इस बारें मे कोई अभिलेख है कि, विश्वासी शत्रुओं या दृष्ट प्राणियों के बाद, बाधा से मुक्त होने या विजय पाने के लिए, क्या कर सकते है.?*
***तथागत बुध्द किसी से *"वैरता / शत्रुता ना करने"* संदर्भ में, एक गाथा में कहते है. -
"न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं |
अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो ||""
(अर्थात :- वैर से वैर, कभी शांत नही होता. अवैर से, वैर शांत होता है. यही संसार का नियम है. यही सनातन धर्म है.)
तथागत बुध्द *"अच्छे कर्मों"* के परिणामों के बारें में, धम्मपद में कहते है. -
"इध मोदति पेच्च मोदति
कतपुञ्ञो उभयत्थ मोदति |
सो मोदति सो पमोदति
दिस्वा कम्मविसुध्दिमत्तनो ||"
(अर्थात :- शुभ कर्म करनेवाला मनुष्य दोनों ही जगह प्रसन्न रहता है. यहां भी और परलोक में भी. अपने शुभ कर्म को देखकर, वह प्रमुदित, उल्लासित होता है. और परलोक में भी सुखी होता है.)
तथागत ने मनुष्यों के *"निर्वाण प्राप्ति "* संदर्भ में, धम्मपद में एक गाथा में कहा है. -
"ते झायिनो साततिका निच्चं दळह परक्कमा|
फुसन्ति धीरा निब्बाणं योगक्षेमं अनुत्तरं ||"
(अर्थात :- हमेशा ही ध्यान करनेवाला, जागरुक, नित्य दृढ पराक्रम में लगे रहनेवाला, धैर्यसंपन्न, साहसी व्यक्ती ही परमपद, योगक्षेम, अनुत्तर पद, निर्वाण पद को प्राप्त होता है.)
तथागत इस संदर्भ में, दुसरी अन्य गाथा में कहते है.
"उट्ठानवतो सतिमतो
सुचिकम्मस्स निसम्मकारिनो |
सञ्ञतस्स च धम्मजीविनो
अप्पमत्तस्स यसोभिवड्ढति ||
(अर्थात :- उद्योगी, जागरुक, शुभ कर्म करनेवाला, सोच समझकर कर्म करनेवाला, संयमी, धर्मानुसार जीविका चलानेवाला, अप्रमादी मनुष्य यश एवं वृध्दि को पाता है.)
इस संदर्भ मै, और एक गाथा है.-
" उट्ठानेन प्पमादेन सञ्ञमेन दमेन च |
दीपं कयिराथ मेधावी यं ओधो नाभिकीरति||"
(अर्थात :- बुध्दीमान व्यक्ती उद्योग, अप्रमाद, संयम और दम द्वारा ऐसा द्वीप बनावे, जिसे बाढ़ डुबा न सके.)
*"धर्म का रसपान"* करने से, मिलनेवाले फल संदर्भ में बुध्द कहते है. -
"धम्मपीती सुखं सेति विप्पसन्नेन चेतसा |
अरियप्पवेदिते धम्मं सदा रमति पण्डितो ||"
(अर्थात :- जो व्यक्ति धर्म (धम्म) का रसपान करता है, वह प्रसन्नचित्त रहता है. सुखपुर्वक सोता है. आर्यजनों के द्वारा उपदिष्ट धर्म का अनुकरण करता है. रमण करता है.)
तथागत बुध्द *"विजय प्राप्ति "* संदर्भ में, धम्मपद मे कहते है. -
" यो सहस्सं सहस्सेन संङ्गामे मानुसे जिने |
एकं जेय्यमत्तानं स वे सङ्गमजुत्तमो ||"
(अर्थात :- एक आदमी युध्द में लाखों आदमियों को जीत ले. और दुसरा अपने आप को जीत ले तो, इनमें वह आदमी वास्तव में श्रेष्ठ है, जो अपने पर विजय प्राप्त करता है.)
और अंत में, तथागत बुध्द का *"धर्म का सार"* बताते हुये, मै अपने शब्द को विराम दुंगा. -
"सब्बपापस्स अकरणं कुसलस्स उपसम्पदा |
सचित्तपरियोदपनं, एतं बुध्दान सासनं ||
(अर्थात :- सभी तरह के पापों का न करना, पुण्यों का संचय करना, अपने चित्त को परिशुध्द एवं नियंत्रित रखना, यही बुध्द की शिक्षा है. यही बुध्द का शासन है.)
और इस आदर्श शासन का निर्माण करने के लिए, बुध्द अपने भिक्खु संघ को कहते है. -
" चरथ भिक्खवे चारिकं, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानु कंपाय अत्थाय, हिताय, सुखाय देवमनुस्सानं, देसेत्थ भिक्खवे धम्मं आदि कल्याणं मज्झेकल्याणं परियोसान कल्याणं, सात्थं सव्यंजनं केवल परिपुण्णं परिसुध्दं ब्रम्हचरियं पकासेथ ||"
*(अर्थात :- हे भिक्खुओ, बहुजन के हित के लिए, बहुजन के सुख के लिए, लोकोंपर अनुकंपा कर, देव एवं मनुष्यों के कल्याण के लिए, प्रसार करने भ्रमण करो. प्रारंभ मे कल्याणप्रद, मध्य में कल्याणप्रद एवं अंत में कल्याणप्रद ऐसे धम्ममार्ग का अर्थ और भावसहित परिशुध्द इस धर्म का ज्ञान, ब्रम्हचर्य पालन कर, प्रकाशमान करो...!)*
* * * * * * * * * * * * *
* परिचय : -
* *डाॅ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य'*
(बौध्द - आंबेडकरी लेखक /विचारवंत / चिंतक)
* मो.न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
* राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल
* राष्ट्रिय पेट्रान, सीआरपीसी वुमन विंग
* राष्ट्रिय पेट्रान, सीआरपीसी एम्प्लाई विंग
* राष्ट्रिय पेट्रान, सीआरपीसी ट्रायबल विंग
* राष्ट्रिय पेट्रान, सीआरपीसी वुमन क्लब
* अध्यक्ष, जागतिक बौध्द परिषद २००६ (नागपूर)
* स्वागताध्यक्ष, विश्व बौध्दमय आंतरराष्ट्रिय परिषद २०१३, २०१४, २०१५
* आयोजक, जागतिक बौध्द महिला परिषद २०१५ (नागपूर)
* अध्यक्ष, अश्वघोष बुध्दीस्ट फाऊंडेशन नागपुर
* अध्यक्ष, जीवक वेलफेयर सोसायटी
* माजी अध्यक्ष, अमृतवन लेप्रोसी रिहबिलिटेशन सेंटर, नागपूर
* अध्यक्ष, अखिल भारतीय आंबेडकरी विचार परिषद २०१७, २०२०
* आयोजक, अखिल भारतीय आंबेडकरी महिला विचार परिषद २०२०
* अध्यक्ष, डाॅ. आंबेडकर आंतरराष्ट्रिय बुध्दीस्ट मिशन
* माजी मानद प्राध्यापक, डाॅ. बाबासाहेब आंबेडकर सामाजिक संस्थान, महु (म.प्र.)
* आगामी पुस्तक प्रकाशन :
* *संविधान संस्कृती* (मराठी कविता संग्रह)
* *बुध्द पंख* (मराठी कविता संग्रह)
* *निर्वाण* (मराठी कविता संग्रह)
* *संविधान संस्कृती की ओर* (हिंदी कविता संग्रह)
* *पद मुद्रा* (हिंदी कविता संग्रह)
* *इंडियाइझम आणि डाॅ. आंबेडकर*
* *तिसरे महायुद्ध आणि डॉ. आंबेडकर*
* पत्ता : ४९४, जीवक विहार परिसर, नया नकाशा, स्वास्तिक स्कुल के पास, लष्करीबाग, नागपुर ४४००१७
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