✍ *मा. दलाई लामा की नाराजी में भारतीय राजनिती की अक्रियाशील कु-नीति...!*
*डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य', नागपुर*
मो.न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
*"स्वतंत्र भारत के पहिले प्रधानमंत्री बनाने के लिए महात्मा गांधी की पहली पसंद यह बँ. मोहम्मद अली जीना थी. परंतु स्वकेंद्रीत एवं आजाद विचारों के पंडित जवाहरलाल नेहरु ही स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गये. अगर बँरिष्टर जीना भारत के प्रधानमंत्री बने होते तो, भारत - पाकिस्तान यह विभाजन तब नही होता. नेहरु के कट्टर विरोध के कारण बँ. जीना भारत के प्रधानमंत्री नही बन सके."* यह विचार परम पावन दलाई लामा इन्होने अभी अभी पणजी मे आयोजित "गोवा व्यवस्थापन संस्था" के समारोह समापन के उपरांत ही छात्रो़ं के बीच चले एक चर्चा मे कही.
आगे जाकर प.पा. दलाई लामा ने कहा कि, *"दलाई लामा यह यंत्रना अब गैरलागु हो गयी है. अब यह दिर्घ काल से चली आ रही परंपरा सुरु रखना चाहिये या नही, इस का निर्णय अब तिब्बती जनता को लेना है. वही इस भाव संदर्भ मे हम लोगो़ं से जादा रुची, यह तो चीनी सरकार को ही है. वह भी राजकीय भावो़ं को देखकर. तिब्बत में हर साल विभिन्न परंपरा के प्रतिनिधी इकठ्ठा आकर इस पर निर्णय लेते है. और इस साल भी तिब्बत में वह बैठक होने जा रही है....!"*
परम पावन दलाई लामा का पहला कथन, वह भी "भारतीय राजनिती" पर, यह तो बडे सोंच का विषय है. क्यौं कि, दलाई लामा भारतीय राजनिती पर कोई भी टिप्पणी करने से अकसर बचते रहे है. वही उनका भारत मे आश्रय लेने का कालखंड भी पंडित नेहरु के सत्ता काल मे ही रहा है. इस विषय पर सविस्तर लिखाण मै बाद में करुंगा ही. दलाई लामा के दुसरे कथन से, मै पिछले दो दिन से बडा ही चिंतीत रहा हुँ. परंतु परम पावन दलाई लामा का वह कथन, हमारे प्राचिन बुध्द सुवर्ण काल के "लोकशाही व्यवस्था" की बडी याँदे दे गया, जहा उनका कथन, *"दलाई लामा यह परंपरा आगे चालु रखना चाहिये या नही, इस का सर्वोपरी निर्णय यह तिब्बत जनता पर छोडा है."*
मेरा व्यक्तीगत एवं संघटन का भी तिब्बती आंदोलन से काफी गहरा संबध रहा है. मैने उन के "तिब्बेत आजादी आंदोलन यात्रा" को हरी झंडी भी दिखाई है. मै कई बार तो गोठणगाव तिब्बती कँम्प भी गया हुँ. वहाँ की असेंबली को मैने अंदर से भी देखा है. वहाँ के तिब्बती गेस्टहाउस मे भी मेरा मुक्काम रहा है. उनका चुनाव प्रक्रिया को भी देखा है. उनके संस्कृती की भी मैने अनुभुती ली है. प.पा. दलाई लामा एवं तिब्बती प्रधानमंत्री से मेरी व्यक्तीगत भेट हुयी है. कर्माप्पा लामा से भी मेरी चर्चा हुयी है. इतना ही नही, नागपुर में मेरे अध्यक्षता में हुयी *"जागतिक बौद्ध परिषद - २००६"* में तिब्बत के मा. धार्मिक मंत्री, वे प्रमुख अतिथी उपस्थित थे. लोकशाही प्रक्रिया का सही अमल, मुझे तिब्बती अंसेबली मे दिखाई दिया. कोई भी हंगामा नही. तिब्बती लोग तो शांतीप्रिय, स्वाभिमानी, इमानदार लोग है. पर मुझे काँग्रेसी नेहरू सरकार पर बडा ही घुस्सा भी आया, की उन्होने तिब्बती समुह को हर शहर से काफी दुर जंगलो मे बसाया है. जहाँ ना कोई रोड था, ना ही कोई सुविधाएँ...! वही बेहाल बांगला देशी चकमा बौध्द शरणार्थी समुह का रहा है. जो त्रिपुरा मे बसे है. और आज भी गरिबी की जिंदगी बसर कर रहे है. वही *स्वतंत्र भारत का विभाजन होने के बाद, पाकिस्तान से भारत आये समुचे सिंधी शरणार्थी को, बडे बडे शहरों मे बसाया गया. इतना ही नही, उन्हे करोडो रुपयो़ की सरकारी मदत भी दी गयी.* पर भारतीय औद्दोगिक क्षेत्र मे चल रहे, "डुप्लिकेट (नकली) उत्पादन निर्माण" का आरोप, सिंधी समुह पर लगता आया है. क्या यह हमारे भारत सरकार की, बडी ही जागती नही तो और इसे हम क्या है...?
तिब्बती अंसेबली को देखने के बाद, मुझे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी ने २५ नवंबर १९४९ को, "भारतीय संविधान" को अमली जामा पहनाते समय, "संविधानिक सभा" मे दिये गये वे अनमोल बोल याद आ गये. डॉ. आंबेडकर कहते है, *"It is not that India did not know what democracy is. There was a time when India was studded with republics, and even where there were monarchies, they were either elected or limited. They were never absolute. It is not that India did not know Parliament or Parliamentary procedure. A study of the Buddhist Bhikshu Sanghas discloses that not only there were Parliaments - for the Sanghas were nothing but parliament - But the Sanghas knew and observed all the rules of Parliamentary procedure known to modern times. They had rules regarding seating arrangements, rules regarding motions, resolutions, quorum, whip, counting of votes, voting by ballot, censure motions, regularization, res judicata, etc. Although these rules of Parliamentary procedure were applied by the Buddha to the meeting of the Sanghas, he must have borrowed them from the rules of the Political Assemblies functioning in the country in his time...."* हमारे समाज के कुछ बिक-अकल़ों का "The Buddhist Personal Act" को विरोध देखकर, मुझे उन पर दया भी आती है. बाबासाहेब का संदर्भ देकर, जो हमारे महामहिम (?) "बौध्द कानुन" को विरोध करते है, क्या उन्होने कभी बाबासाहेब के संपुर्ण लिखाण का "विषयानुरूप वर्गीकरण" किया है ? क्या उन्होने बाबासाहेब के संपुर्ण लिखाण का "कालानुसापेक्ष वर्गीकरण" किया है ? क्या उन्होने बाबासाहेब के समस्त लिखाण का संशोधनात्मक, चिकित्सात्मक, समिक्षात्मक अध्ययन किया है ? बाबासाहेब आंबेडकर को पढना अलग विषय है. परंतु उसे समझना - उमगना - परखना यह अलग विषय है...! मैने *"The Buddhist Personal Act"* का एक कच्चा ड्राफ्ट तयार कर, इंटरनेट, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉगर आदी पर डाल दिया है. जब तक उस कच्चे ड्राफ्ट पर, विद्वान - संशोधक - धार्मिक गुरू आदीयों द्वारा संशोधनात्मक - चिकित्सात्मक चिंतन नही किया जाता, तब तक उस ड्राफ्ट को, कानुनी अमली जामा पहनाना यह मुर्खता होगी...!
यह विषयांतर भाव लिखना भी, यहाँ कुछ गैर नही है. क्यौ कि, वह विषय बुध्द संस्कृती से जुडा हुआ है. पुज्य दलाई लामा जी ने *"दलाई लामा यह यंत्रणा अब गैरलागु होने की जो बात कही है....!"* यह विषय बहुत ही गंभिर है. दलाई लामा यह कोई साधारणसा पद नही है ! वह तो तिब्बती शासन में "सर्वोच्च पद" है. *"जिसका संबंध यह तिब्बती संस्कृती के धार्मिक - राजनितिक भाव से जुडा है. जो एक बहुत बडा शक्ती केंद्र भी है, जिस के द्वारा तिब्बती समुह को बांधे रखा है. वह तो तिब्बत की सही रूप से शासन व्यवस्था है...!"* अत: उस पद को हटाने से केवल तिब्बती संस्कृती ही नही, अपितु विश्व के समस्त बौध्द संस्कृती पर, उसका गहरा असर पडने की भी प्रबल संभावना है.
हमे तिब्बत का प्राचिन इतिहास समजना भी बहुत जरूरी है. तिब्बत की सिमाएँ यह २५ लाख चौरस किलोमीटर, अर्थात भारत से दोन तृतीयांश से भी बडे आकार का बौद्ध राष्ट्र था. २१०० वर्षों से भी जादा इतिहास रहा तिब्बत, सातवी-दसवी शताब्दी तक आशिया का एक स्वतंत्र शक्तीशाली राष्ट्र था. सन ७६३ में तिब्बत ने चीन पर आक्रमण करने से, चीन का राजा देश छोडकर भाग गया. फिर तिब्बती सेना ने, वहा नये राजा की नियुक्ती कर, सन ८२१ में चीन - तिब्बत के बीच "सरहद्द निश्चीतीकरण" का समझौता किया. और दोनों भी देशों मे सुख - शांती से रहने की बातें कही गयी. *सन १९१४ में भारत - तिब्बत के बीच, "सरहद्द निश्चितीकरण" (मँकमोहन रेखा) करनेवाला "सिमला करार" हुआ.* सन १९४९ को नेपाल ने संयुक्त राष्ट्र में स्वयं सदस्यता के लिए जो आवेदन किया था, तब सार्वभौम दर्जा सिध्द करने के लिए, उस सिमला करार का उल्लेख किया गया. यही इतिहास ही तो हमे, तिब्बत के आजादी का बडा सबुत दे जाता है.
सन १९४१ में अमेरिका के बडे कुटनीति ने, सिकियांग और तिब्बत यह दो राष्ट्र चीन के अधिन करने की एक बडी नीव रखी गयी. सन १९१४ के तिब्बत - ब्रिटिश बीच हुये करार को, अमेरिका ने भी स्विकार किया था. वही द्वितिय महायुध्द में ब्रिटिश के बाजु में खडे होने के साथ ही, भारत से ब्रिटिश की पकड ढिली करने के लिए, अमेरिका ने चीन को उनकी सैनिक छावणी को तिब्बत में लगाने के लिए प्रेरीत किया. क्यौं कि, अमेरिका आशिया पर भी अपना अधिपत्य जमाना चाहता था, जो चीन के बीना संभव नही था. अर्थात इस कुटनीती को अंजाम देकर, अमेरिका ने ब्रिटन को बहुत बडा धोका था. अमेरिका का उद्देश केवल हिटलर को मदत करना था. क्यौ कि, अमेरिका का सही शत्रु जर्मनी नही, तो जापान था. वही हिंदी महासागर मे भी, ब्रिटिश नाविक दल पर, अमेरिका अपना स्व: अधिपत्य जमाना चाहता था. अमेरिका की यह कुटनीतिक चाल समझकर, रशिया का सर्वेसर्वा विन्स्टन चर्चील भी *"इंग्लिश भाषिकों की केवल एक ही राजनिती हो...!"* यह घोषवाक्य देकर, भारत के हितों की पुरी वाट लगा दी. वही अमेरिका ने भी भारत को बचाने के बदले, चीन को बचाने की चाल खेलकर, तिब्बत को चीन के गुलामी की ओर ढकेल दिया. इस तरह के कुटनीतिक चाल में, भारत - पाकिस्तान के विघटन का रास्ता खुला किया गया. आखिर द्वितिय महायुध्द मे ब्रिटन ने यह बातें खुले तौर पर स्विकार भी की.
सन १९५० में तिब्बत पर चीन ने आक्रमण करने से, दलाई लामा तिब्बत से भागकर, भारत के सरहद्द पर, चुंगी खोरी मे आश्रित हो गया. तथा भारत सरकार एवं युनो को भी उस की सुचना दी. परंतु इस घटना की गंभिर दखल कभी ली ही नही गयी. वही पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ७ दिसंबर १९५१ में लोकसभा में अपने भाषण में कहा कि, *"तिब्बत आजादी संदर्भ में निर्णायक आवाज तिब्बती जनता की होनी चाहिये. अन्य की नही."* भारत सरकार के इन विदेश नीति पर नाराजी बताते हुये, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने सन १९५० कहते है कि, *"सन १९४९ को भारत ने चीन को स्विकृती देने के बदले तिब्बत को स्विकृती दी होती तो, भारत - चीन सरहद्द समस्या कभी पैदा ही नही होती...!"* जब तक गुलाम भारतीय उपखंड की सरंक्षण नीति एक थी, अर्थात ब्रिटिश राज व्यवस्था का अंत होने के पहले, तिब्बत और अफगाणिस्तान की आजादी अबाधित रही. परंतु भारत - पाकिस्तान विघटन के बाद भारत उपखंड की संरक्षण नीति पर कोई पॉलिसी ही नही बनाई गयी. उसका परिपाक आगे जाकर सन १९५० में चीन ने तिब्बत को और सन १९८० में रशिया ने अफगाणिस्तान को अपने स्व: आधिपत्य में ले लिया.
तिब्बत संदर्भ मे जवाहरलाल नेहरु ने जो गलत विदेश नीतियाँ चलाई थी, पर तत्कालीन भाजपा शासित प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेयी ने तो, विदेश नीतिओं की पुर्णत: हद ही पार की. *"अटल बिहारी बाजपेयी ने तो तिब्बत, यह चीन का अविभाज्य अंग होने का वक्तव्य ही दे डाला."* आज चीन - भारत - भुतान के बीच का "सरहद्द डोकलाम विवाद" भी उसी भारतीय गलत विदेशी नीतिओं का परिपाक है. कश्मिर प्रश्न भी नेहरु के उसी गलत नितीओं की देण है. चीन यह ओबोर के माध्यम से समुचे आशिया पर, अपना शक्तीशाली अधिपत्त जमाने का प्रयास कर रहा है. आज नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांगला देश समान पडोसी देशो़ं को, चीन की केवल आर्थिक मदत ही नही मिलती तो, चीनी सेना का केंद्र भी वहा बन रहा है. *"वही चीन ने तिब्बत में विश्व मे कही भी हमला करने के लिए, "केमीकल वार" और आधुनिक हत्यारों से लेस केंद्र स्थापित किये है."* दक्षिण कोरीया हो या पाकिस्तान हो, चीन के अधिन काम करने मे ही धन्यता मानते है. आज चीन ही तो अमेरिका को आवाहन कर रहा है. रशिया पहले समान शक्तीशाली केंद्रबिंदु अब रहा नही. *अगर "तिसरा महायुध्द" लादा गया तो, भारत का अस्तित्व क्या होगा ?* यह सबसे बडा अहं प्रश्न है. क्या भारत केवल अमेरिका के ही सहारे पनपने की बातें करेगा...? रशिया का भारत पर वो पहले समान विश्वास अब रहा नही. भुतान को छोड दिया जाएँ तो, अन्य भारत के पडोसी देशों के चीन के साथ गहरे संबध है. चीन ने यह सभी बातें केवल आर्थिक समृध्दी कारण करने मे सफलता पायी है. देवत्व - धर्मांधता को वहा कोई भी जगह नही है. *"अमेरिका तो केवल अरब देशो़ं के कर्ज से ही, अपनी दादागिरी कर रहा है. अमेरिका की अर्थव्यवस्था दुसरी बार कब डगमगायेगी, यह तो कहाँ नही जा सकता. तब भारत का क्या होगा...?"* चीन ने पाकिस्तान मे अलगाववाद को पनाह देकर, भारत को गुलाम बनाने की रणनिती चलाई है. अगर वह संभव नही हुआ तो, तिब्बत से भारत पर हमला करना क्या इसे नकारा जा सकता है ? भुतान का सरहद्द भुभाग "डोकलाम" भी उसी कडी की एक कुटनीति है ...!!!
भारत यह पडोसी क्षेत्र से इस तरह घिरा पडा है. भारत का इतिहास यह तो गुलामी का इतिहास रहा है. और भारत पर यह विदेशी गुलामी लादने की देशद्रोहीता का जिम्मेदार केवल ब्राम्हण्यवाद रहा है. इस पर डॉ. आंबेडकर २५ नवंबर १९४९ को "संविधान सभा" में कहते है कि, *"On 26th January 1950, India will be an independent country (cheers). What would happen to her independence ? Will she mentain her independence or will she lost it again ? This is the first thought that comes to my mind. It is not that India was never an independent country. The point is that she once lost the independence she had. Will she lost it a second time ...?"* वही काँग्रेसी नरसिंहराव सरकार ने, फिर से भारत पर भांडवलशाही देशों की गुलामी लादने का बडा ही हिन काम किया है. भारतीय अर्थव्यवस्था तो पुर्णत: खोकली दिखाई देती है. भारत यह कर्ज से तले पुर्णत: डुब चुका है. भारत को डॉ. मनमोहन सिंग समान अच्छा अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मिलने के पश्चात भी, काँग्रेसी कु-नीति ने सिंग को अपने मर्जी से काम करने की आजादी न देना...! यह भारत की बडी शोकांतिका रही है. फिर भी डॉ मनमोहन सिंग जी ने डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जी के अर्थनीति पर चलने का कुछ प्रयास किया था. हमारे भारत की अर्थनीती यह केवल डॉलर के सहारे कब तक चलेगी...? यह अहमं सवाल है. भारत की महंगाई यह आसमान छुँ रही है. कर्मचारी आदीओं को महंगाई भत्ते में वृध्दी तो मिल जाती है. परंतु किसान, मजदुर, सामान्य वर्ग का क्या...? वह तो महंगाई तले मर रहा है. *"वही देवत्व - धर्मांधता ने भारतीय अर्थव्यवस्था को मंदिरों में जबडे रखा है. और मंदिरों में डंब हुये, उस संपत्ती का वापर करने की हिंमत कोई भी सत्ता व्यवस्था नही कर पा रही है. यही तो बडी शोकांतिका है...!"* क्या भारतीय अर्थनीति यह बाबासाहेब के अर्थनीति विचारो़ पर चलेगी...? यह केवल प्रश्न ही बना है.
विदेशी नीति के संदर्भ मे जवाहरलाल नेहरू, अटलबिहारी बाजपेयी ने जो गलतीयाँ की थी, वह गलतीयाँ नरेंद्र मोदी ने नही की. इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी ने अन्य देशो़ से अच्छे संबध बनाने का प्रयास किया है. परंतु नरेंद्र मोदी केवल हवा मे ही उडते नजर आते है. तिब्बत के संदर्भ मे मोदी का मौन रहना भी, हमारे भारतीय सुरक्षा के लिए बडा घातक हो सकता है. अमेरिका आज तिब्बत के प्रती सकारात्मक दिखाई देता है. वही भारत का उदासीन रहना ? क्या नरेंद्र मोदी, तिब्बत यह एक स्वतंत्र राष्ट्र है ? यह वक्तव्य करने की हिंमत दिखा पायेगा, यह भी महत्वपुर्ण प्रश्न है. चीन का आर्थिक सशक्त हो जाना, यह तिब्बत के आजादी लिए अब बडे दुर की मंजिल है. दलाई लामा का वक्तव्य भी हमे उसी कडी में लेना होगा. भारत के संदर्भ में देवत्व - धर्मांधता से परे होकर, *"मंदिरों का राष्ट्रियकरण"* करने की हिंमत नरेंद्र मोदी ने ना दिखाना, यह मोदी की सबसे बडी कमजोरी है. इंदिरा गांधी ने बँको का राष्ट्रियकरण करने की एवं भारत पर आणिबाणी लादने की हिंमत दिखाई थी. इसके लिए बडे जिगर की जरूरत है. राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ और सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत तो केवल और केवल देवत्व - हिंदुत्व के कुप-मंडुक हुये दिखाई देते है. भारत की सुरक्षा और आर्थिक विकास उन का एजेंडा अब तक दिखाई ना देना, वही "भारत राष्ट्रवाद" यह संघ का मिशन कब होगा ? यह भी अनुत्तरित प्रश्न बना हुआ है. नरेंद्र मोदी भी उसी कडी का एक बडा हिस्सा है.
आजाद भारत मे मागासवर्गीय समुह को राजकिय समानता तो मिली है, परंतु चुने गये प्रतिनिधीओ़ ने उनका गुलाम होना, यह भी बडे चिंता का विषय है. वही सामाजिक - आर्थिक असमानता ने, भारतीय अंतर्गत समाज व्यवस्था मे अंतर्युध्द चल रहा है. वही देवत्व - धर्मांधता ने मानसिक गुलामी को और भी जादा बढावा दिया है. भारत की आर्थिक व्यवस्था, केवल मंदिरो मे ही डंब होने के कारण बडी खस्ता है. भारत कर्ज से तले डुबा है. और *हमारे नेता लोग "सशक्त भारत - समृद्ध भारत - एकसंघ भारत" की बडी बडी डिंगे हाकते रहते है...!* सवर्ण वर्ग का एक बडा धर्मांधी कुणबा तो, राष्ट्रभक्त "बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर मुर्दाबाद" के नारे दे रहा है ! भारत की अखंड अस्मिता "भारतीय संविधान" की होली करते भी, वे दिखाई देते है. फिर भी इस भारतीय शासन व्यवस्था और पोलिस वर्ग का मौन रहना, यह तो भारत के अगली गुलामी का संदेश दे रहा है. *"मोहनदास गांधी हत्याकांड"* को वह सवर्ण जाती वर्ग भुलते नजर आता है. जब उन की बहु - बेटीयाँ अपनी इज्जत बचाने की भीख माँगते थे. वही पुरुष वर्ग अपनी जान बचाने के लिए, जहाँ वहाँ छुपते फिरते नज़र आते थे. आज वह उच्च जातीय देशद्रोही धर्मांधी कुणबा, भारत के उनके पुरखों के देशद्रोही - गद्दारी की मिसाल बनते नजर आते है. अगर यही हालत रही तो, शायद भारत मे *"अंतर्गत रक्तक्रांती"* को बुलावा जादा दुर नही..! जरा सोचों, अंतर्गत और बाह्यगत इन द्वंद्व वार में स्वतंत्र भारत, क्या जिवित रह पायेगा भी नही ? यह प्रश्न है, सभी भारतीय देशभक्तों के लिए...!!!
* * * * * * * * * * * * * * * * * * * * *
* *डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य', नागपुर*
(भारत राष्ट्रवाद समर्थक)
* राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल
* अध्यक्ष, डॉ. आंबेडकर आंतरराष्ट्रिय बुध्दीस्ट मिशन
* अध्यक्ष, जागतिक बौद्ध परिषद २००६, नागपुर
* मो.न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
*डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य', नागपुर*
मो.न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
*"स्वतंत्र भारत के पहिले प्रधानमंत्री बनाने के लिए महात्मा गांधी की पहली पसंद यह बँ. मोहम्मद अली जीना थी. परंतु स्वकेंद्रीत एवं आजाद विचारों के पंडित जवाहरलाल नेहरु ही स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री बन गये. अगर बँरिष्टर जीना भारत के प्रधानमंत्री बने होते तो, भारत - पाकिस्तान यह विभाजन तब नही होता. नेहरु के कट्टर विरोध के कारण बँ. जीना भारत के प्रधानमंत्री नही बन सके."* यह विचार परम पावन दलाई लामा इन्होने अभी अभी पणजी मे आयोजित "गोवा व्यवस्थापन संस्था" के समारोह समापन के उपरांत ही छात्रो़ं के बीच चले एक चर्चा मे कही.
आगे जाकर प.पा. दलाई लामा ने कहा कि, *"दलाई लामा यह यंत्रना अब गैरलागु हो गयी है. अब यह दिर्घ काल से चली आ रही परंपरा सुरु रखना चाहिये या नही, इस का निर्णय अब तिब्बती जनता को लेना है. वही इस भाव संदर्भ मे हम लोगो़ं से जादा रुची, यह तो चीनी सरकार को ही है. वह भी राजकीय भावो़ं को देखकर. तिब्बत में हर साल विभिन्न परंपरा के प्रतिनिधी इकठ्ठा आकर इस पर निर्णय लेते है. और इस साल भी तिब्बत में वह बैठक होने जा रही है....!"*
परम पावन दलाई लामा का पहला कथन, वह भी "भारतीय राजनिती" पर, यह तो बडे सोंच का विषय है. क्यौं कि, दलाई लामा भारतीय राजनिती पर कोई भी टिप्पणी करने से अकसर बचते रहे है. वही उनका भारत मे आश्रय लेने का कालखंड भी पंडित नेहरु के सत्ता काल मे ही रहा है. इस विषय पर सविस्तर लिखाण मै बाद में करुंगा ही. दलाई लामा के दुसरे कथन से, मै पिछले दो दिन से बडा ही चिंतीत रहा हुँ. परंतु परम पावन दलाई लामा का वह कथन, हमारे प्राचिन बुध्द सुवर्ण काल के "लोकशाही व्यवस्था" की बडी याँदे दे गया, जहा उनका कथन, *"दलाई लामा यह परंपरा आगे चालु रखना चाहिये या नही, इस का सर्वोपरी निर्णय यह तिब्बत जनता पर छोडा है."*
मेरा व्यक्तीगत एवं संघटन का भी तिब्बती आंदोलन से काफी गहरा संबध रहा है. मैने उन के "तिब्बेत आजादी आंदोलन यात्रा" को हरी झंडी भी दिखाई है. मै कई बार तो गोठणगाव तिब्बती कँम्प भी गया हुँ. वहाँ की असेंबली को मैने अंदर से भी देखा है. वहाँ के तिब्बती गेस्टहाउस मे भी मेरा मुक्काम रहा है. उनका चुनाव प्रक्रिया को भी देखा है. उनके संस्कृती की भी मैने अनुभुती ली है. प.पा. दलाई लामा एवं तिब्बती प्रधानमंत्री से मेरी व्यक्तीगत भेट हुयी है. कर्माप्पा लामा से भी मेरी चर्चा हुयी है. इतना ही नही, नागपुर में मेरे अध्यक्षता में हुयी *"जागतिक बौद्ध परिषद - २००६"* में तिब्बत के मा. धार्मिक मंत्री, वे प्रमुख अतिथी उपस्थित थे. लोकशाही प्रक्रिया का सही अमल, मुझे तिब्बती अंसेबली मे दिखाई दिया. कोई भी हंगामा नही. तिब्बती लोग तो शांतीप्रिय, स्वाभिमानी, इमानदार लोग है. पर मुझे काँग्रेसी नेहरू सरकार पर बडा ही घुस्सा भी आया, की उन्होने तिब्बती समुह को हर शहर से काफी दुर जंगलो मे बसाया है. जहाँ ना कोई रोड था, ना ही कोई सुविधाएँ...! वही बेहाल बांगला देशी चकमा बौध्द शरणार्थी समुह का रहा है. जो त्रिपुरा मे बसे है. और आज भी गरिबी की जिंदगी बसर कर रहे है. वही *स्वतंत्र भारत का विभाजन होने के बाद, पाकिस्तान से भारत आये समुचे सिंधी शरणार्थी को, बडे बडे शहरों मे बसाया गया. इतना ही नही, उन्हे करोडो रुपयो़ की सरकारी मदत भी दी गयी.* पर भारतीय औद्दोगिक क्षेत्र मे चल रहे, "डुप्लिकेट (नकली) उत्पादन निर्माण" का आरोप, सिंधी समुह पर लगता आया है. क्या यह हमारे भारत सरकार की, बडी ही जागती नही तो और इसे हम क्या है...?
तिब्बती अंसेबली को देखने के बाद, मुझे डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी ने २५ नवंबर १९४९ को, "भारतीय संविधान" को अमली जामा पहनाते समय, "संविधानिक सभा" मे दिये गये वे अनमोल बोल याद आ गये. डॉ. आंबेडकर कहते है, *"It is not that India did not know what democracy is. There was a time when India was studded with republics, and even where there were monarchies, they were either elected or limited. They were never absolute. It is not that India did not know Parliament or Parliamentary procedure. A study of the Buddhist Bhikshu Sanghas discloses that not only there were Parliaments - for the Sanghas were nothing but parliament - But the Sanghas knew and observed all the rules of Parliamentary procedure known to modern times. They had rules regarding seating arrangements, rules regarding motions, resolutions, quorum, whip, counting of votes, voting by ballot, censure motions, regularization, res judicata, etc. Although these rules of Parliamentary procedure were applied by the Buddha to the meeting of the Sanghas, he must have borrowed them from the rules of the Political Assemblies functioning in the country in his time...."* हमारे समाज के कुछ बिक-अकल़ों का "The Buddhist Personal Act" को विरोध देखकर, मुझे उन पर दया भी आती है. बाबासाहेब का संदर्भ देकर, जो हमारे महामहिम (?) "बौध्द कानुन" को विरोध करते है, क्या उन्होने कभी बाबासाहेब के संपुर्ण लिखाण का "विषयानुरूप वर्गीकरण" किया है ? क्या उन्होने बाबासाहेब के संपुर्ण लिखाण का "कालानुसापेक्ष वर्गीकरण" किया है ? क्या उन्होने बाबासाहेब के समस्त लिखाण का संशोधनात्मक, चिकित्सात्मक, समिक्षात्मक अध्ययन किया है ? बाबासाहेब आंबेडकर को पढना अलग विषय है. परंतु उसे समझना - उमगना - परखना यह अलग विषय है...! मैने *"The Buddhist Personal Act"* का एक कच्चा ड्राफ्ट तयार कर, इंटरनेट, फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉगर आदी पर डाल दिया है. जब तक उस कच्चे ड्राफ्ट पर, विद्वान - संशोधक - धार्मिक गुरू आदीयों द्वारा संशोधनात्मक - चिकित्सात्मक चिंतन नही किया जाता, तब तक उस ड्राफ्ट को, कानुनी अमली जामा पहनाना यह मुर्खता होगी...!
यह विषयांतर भाव लिखना भी, यहाँ कुछ गैर नही है. क्यौ कि, वह विषय बुध्द संस्कृती से जुडा हुआ है. पुज्य दलाई लामा जी ने *"दलाई लामा यह यंत्रणा अब गैरलागु होने की जो बात कही है....!"* यह विषय बहुत ही गंभिर है. दलाई लामा यह कोई साधारणसा पद नही है ! वह तो तिब्बती शासन में "सर्वोच्च पद" है. *"जिसका संबंध यह तिब्बती संस्कृती के धार्मिक - राजनितिक भाव से जुडा है. जो एक बहुत बडा शक्ती केंद्र भी है, जिस के द्वारा तिब्बती समुह को बांधे रखा है. वह तो तिब्बत की सही रूप से शासन व्यवस्था है...!"* अत: उस पद को हटाने से केवल तिब्बती संस्कृती ही नही, अपितु विश्व के समस्त बौध्द संस्कृती पर, उसका गहरा असर पडने की भी प्रबल संभावना है.
हमे तिब्बत का प्राचिन इतिहास समजना भी बहुत जरूरी है. तिब्बत की सिमाएँ यह २५ लाख चौरस किलोमीटर, अर्थात भारत से दोन तृतीयांश से भी बडे आकार का बौद्ध राष्ट्र था. २१०० वर्षों से भी जादा इतिहास रहा तिब्बत, सातवी-दसवी शताब्दी तक आशिया का एक स्वतंत्र शक्तीशाली राष्ट्र था. सन ७६३ में तिब्बत ने चीन पर आक्रमण करने से, चीन का राजा देश छोडकर भाग गया. फिर तिब्बती सेना ने, वहा नये राजा की नियुक्ती कर, सन ८२१ में चीन - तिब्बत के बीच "सरहद्द निश्चीतीकरण" का समझौता किया. और दोनों भी देशों मे सुख - शांती से रहने की बातें कही गयी. *सन १९१४ में भारत - तिब्बत के बीच, "सरहद्द निश्चितीकरण" (मँकमोहन रेखा) करनेवाला "सिमला करार" हुआ.* सन १९४९ को नेपाल ने संयुक्त राष्ट्र में स्वयं सदस्यता के लिए जो आवेदन किया था, तब सार्वभौम दर्जा सिध्द करने के लिए, उस सिमला करार का उल्लेख किया गया. यही इतिहास ही तो हमे, तिब्बत के आजादी का बडा सबुत दे जाता है.
सन १९४१ में अमेरिका के बडे कुटनीति ने, सिकियांग और तिब्बत यह दो राष्ट्र चीन के अधिन करने की एक बडी नीव रखी गयी. सन १९१४ के तिब्बत - ब्रिटिश बीच हुये करार को, अमेरिका ने भी स्विकार किया था. वही द्वितिय महायुध्द में ब्रिटिश के बाजु में खडे होने के साथ ही, भारत से ब्रिटिश की पकड ढिली करने के लिए, अमेरिका ने चीन को उनकी सैनिक छावणी को तिब्बत में लगाने के लिए प्रेरीत किया. क्यौं कि, अमेरिका आशिया पर भी अपना अधिपत्य जमाना चाहता था, जो चीन के बीना संभव नही था. अर्थात इस कुटनीती को अंजाम देकर, अमेरिका ने ब्रिटन को बहुत बडा धोका था. अमेरिका का उद्देश केवल हिटलर को मदत करना था. क्यौ कि, अमेरिका का सही शत्रु जर्मनी नही, तो जापान था. वही हिंदी महासागर मे भी, ब्रिटिश नाविक दल पर, अमेरिका अपना स्व: अधिपत्य जमाना चाहता था. अमेरिका की यह कुटनीतिक चाल समझकर, रशिया का सर्वेसर्वा विन्स्टन चर्चील भी *"इंग्लिश भाषिकों की केवल एक ही राजनिती हो...!"* यह घोषवाक्य देकर, भारत के हितों की पुरी वाट लगा दी. वही अमेरिका ने भी भारत को बचाने के बदले, चीन को बचाने की चाल खेलकर, तिब्बत को चीन के गुलामी की ओर ढकेल दिया. इस तरह के कुटनीतिक चाल में, भारत - पाकिस्तान के विघटन का रास्ता खुला किया गया. आखिर द्वितिय महायुध्द मे ब्रिटन ने यह बातें खुले तौर पर स्विकार भी की.
सन १९५० में तिब्बत पर चीन ने आक्रमण करने से, दलाई लामा तिब्बत से भागकर, भारत के सरहद्द पर, चुंगी खोरी मे आश्रित हो गया. तथा भारत सरकार एवं युनो को भी उस की सुचना दी. परंतु इस घटना की गंभिर दखल कभी ली ही नही गयी. वही पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ७ दिसंबर १९५१ में लोकसभा में अपने भाषण में कहा कि, *"तिब्बत आजादी संदर्भ में निर्णायक आवाज तिब्बती जनता की होनी चाहिये. अन्य की नही."* भारत सरकार के इन विदेश नीति पर नाराजी बताते हुये, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने सन १९५० कहते है कि, *"सन १९४९ को भारत ने चीन को स्विकृती देने के बदले तिब्बत को स्विकृती दी होती तो, भारत - चीन सरहद्द समस्या कभी पैदा ही नही होती...!"* जब तक गुलाम भारतीय उपखंड की सरंक्षण नीति एक थी, अर्थात ब्रिटिश राज व्यवस्था का अंत होने के पहले, तिब्बत और अफगाणिस्तान की आजादी अबाधित रही. परंतु भारत - पाकिस्तान विघटन के बाद भारत उपखंड की संरक्षण नीति पर कोई पॉलिसी ही नही बनाई गयी. उसका परिपाक आगे जाकर सन १९५० में चीन ने तिब्बत को और सन १९८० में रशिया ने अफगाणिस्तान को अपने स्व: आधिपत्य में ले लिया.
तिब्बत संदर्भ मे जवाहरलाल नेहरु ने जो गलत विदेश नीतियाँ चलाई थी, पर तत्कालीन भाजपा शासित प्रधानमंत्री अटलबिहारी बाजपेयी ने तो, विदेश नीतिओं की पुर्णत: हद ही पार की. *"अटल बिहारी बाजपेयी ने तो तिब्बत, यह चीन का अविभाज्य अंग होने का वक्तव्य ही दे डाला."* आज चीन - भारत - भुतान के बीच का "सरहद्द डोकलाम विवाद" भी उसी भारतीय गलत विदेशी नीतिओं का परिपाक है. कश्मिर प्रश्न भी नेहरु के उसी गलत नितीओं की देण है. चीन यह ओबोर के माध्यम से समुचे आशिया पर, अपना शक्तीशाली अधिपत्त जमाने का प्रयास कर रहा है. आज नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान, बांगला देश समान पडोसी देशो़ं को, चीन की केवल आर्थिक मदत ही नही मिलती तो, चीनी सेना का केंद्र भी वहा बन रहा है. *"वही चीन ने तिब्बत में विश्व मे कही भी हमला करने के लिए, "केमीकल वार" और आधुनिक हत्यारों से लेस केंद्र स्थापित किये है."* दक्षिण कोरीया हो या पाकिस्तान हो, चीन के अधिन काम करने मे ही धन्यता मानते है. आज चीन ही तो अमेरिका को आवाहन कर रहा है. रशिया पहले समान शक्तीशाली केंद्रबिंदु अब रहा नही. *अगर "तिसरा महायुध्द" लादा गया तो, भारत का अस्तित्व क्या होगा ?* यह सबसे बडा अहं प्रश्न है. क्या भारत केवल अमेरिका के ही सहारे पनपने की बातें करेगा...? रशिया का भारत पर वो पहले समान विश्वास अब रहा नही. भुतान को छोड दिया जाएँ तो, अन्य भारत के पडोसी देशों के चीन के साथ गहरे संबध है. चीन ने यह सभी बातें केवल आर्थिक समृध्दी कारण करने मे सफलता पायी है. देवत्व - धर्मांधता को वहा कोई भी जगह नही है. *"अमेरिका तो केवल अरब देशो़ं के कर्ज से ही, अपनी दादागिरी कर रहा है. अमेरिका की अर्थव्यवस्था दुसरी बार कब डगमगायेगी, यह तो कहाँ नही जा सकता. तब भारत का क्या होगा...?"* चीन ने पाकिस्तान मे अलगाववाद को पनाह देकर, भारत को गुलाम बनाने की रणनिती चलाई है. अगर वह संभव नही हुआ तो, तिब्बत से भारत पर हमला करना क्या इसे नकारा जा सकता है ? भुतान का सरहद्द भुभाग "डोकलाम" भी उसी कडी की एक कुटनीति है ...!!!
भारत यह पडोसी क्षेत्र से इस तरह घिरा पडा है. भारत का इतिहास यह तो गुलामी का इतिहास रहा है. और भारत पर यह विदेशी गुलामी लादने की देशद्रोहीता का जिम्मेदार केवल ब्राम्हण्यवाद रहा है. इस पर डॉ. आंबेडकर २५ नवंबर १९४९ को "संविधान सभा" में कहते है कि, *"On 26th January 1950, India will be an independent country (cheers). What would happen to her independence ? Will she mentain her independence or will she lost it again ? This is the first thought that comes to my mind. It is not that India was never an independent country. The point is that she once lost the independence she had. Will she lost it a second time ...?"* वही काँग्रेसी नरसिंहराव सरकार ने, फिर से भारत पर भांडवलशाही देशों की गुलामी लादने का बडा ही हिन काम किया है. भारतीय अर्थव्यवस्था तो पुर्णत: खोकली दिखाई देती है. भारत यह कर्ज से तले पुर्णत: डुब चुका है. भारत को डॉ. मनमोहन सिंग समान अच्छा अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मिलने के पश्चात भी, काँग्रेसी कु-नीति ने सिंग को अपने मर्जी से काम करने की आजादी न देना...! यह भारत की बडी शोकांतिका रही है. फिर भी डॉ मनमोहन सिंग जी ने डॉ बाबासाहेब आंबेडकर जी के अर्थनीति पर चलने का कुछ प्रयास किया था. हमारे भारत की अर्थनीती यह केवल डॉलर के सहारे कब तक चलेगी...? यह अहमं सवाल है. भारत की महंगाई यह आसमान छुँ रही है. कर्मचारी आदीओं को महंगाई भत्ते में वृध्दी तो मिल जाती है. परंतु किसान, मजदुर, सामान्य वर्ग का क्या...? वह तो महंगाई तले मर रहा है. *"वही देवत्व - धर्मांधता ने भारतीय अर्थव्यवस्था को मंदिरों में जबडे रखा है. और मंदिरों में डंब हुये, उस संपत्ती का वापर करने की हिंमत कोई भी सत्ता व्यवस्था नही कर पा रही है. यही तो बडी शोकांतिका है...!"* क्या भारतीय अर्थनीति यह बाबासाहेब के अर्थनीति विचारो़ पर चलेगी...? यह केवल प्रश्न ही बना है.
विदेशी नीति के संदर्भ मे जवाहरलाल नेहरू, अटलबिहारी बाजपेयी ने जो गलतीयाँ की थी, वह गलतीयाँ नरेंद्र मोदी ने नही की. इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी ने अन्य देशो़ से अच्छे संबध बनाने का प्रयास किया है. परंतु नरेंद्र मोदी केवल हवा मे ही उडते नजर आते है. तिब्बत के संदर्भ मे मोदी का मौन रहना भी, हमारे भारतीय सुरक्षा के लिए बडा घातक हो सकता है. अमेरिका आज तिब्बत के प्रती सकारात्मक दिखाई देता है. वही भारत का उदासीन रहना ? क्या नरेंद्र मोदी, तिब्बत यह एक स्वतंत्र राष्ट्र है ? यह वक्तव्य करने की हिंमत दिखा पायेगा, यह भी महत्वपुर्ण प्रश्न है. चीन का आर्थिक सशक्त हो जाना, यह तिब्बत के आजादी लिए अब बडे दुर की मंजिल है. दलाई लामा का वक्तव्य भी हमे उसी कडी में लेना होगा. भारत के संदर्भ में देवत्व - धर्मांधता से परे होकर, *"मंदिरों का राष्ट्रियकरण"* करने की हिंमत नरेंद्र मोदी ने ना दिखाना, यह मोदी की सबसे बडी कमजोरी है. इंदिरा गांधी ने बँको का राष्ट्रियकरण करने की एवं भारत पर आणिबाणी लादने की हिंमत दिखाई थी. इसके लिए बडे जिगर की जरूरत है. राष्ट्रिय स्वयंसेवक संघ और सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत तो केवल और केवल देवत्व - हिंदुत्व के कुप-मंडुक हुये दिखाई देते है. भारत की सुरक्षा और आर्थिक विकास उन का एजेंडा अब तक दिखाई ना देना, वही "भारत राष्ट्रवाद" यह संघ का मिशन कब होगा ? यह भी अनुत्तरित प्रश्न बना हुआ है. नरेंद्र मोदी भी उसी कडी का एक बडा हिस्सा है.
आजाद भारत मे मागासवर्गीय समुह को राजकिय समानता तो मिली है, परंतु चुने गये प्रतिनिधीओ़ ने उनका गुलाम होना, यह भी बडे चिंता का विषय है. वही सामाजिक - आर्थिक असमानता ने, भारतीय अंतर्गत समाज व्यवस्था मे अंतर्युध्द चल रहा है. वही देवत्व - धर्मांधता ने मानसिक गुलामी को और भी जादा बढावा दिया है. भारत की आर्थिक व्यवस्था, केवल मंदिरो मे ही डंब होने के कारण बडी खस्ता है. भारत कर्ज से तले डुबा है. और *हमारे नेता लोग "सशक्त भारत - समृद्ध भारत - एकसंघ भारत" की बडी बडी डिंगे हाकते रहते है...!* सवर्ण वर्ग का एक बडा धर्मांधी कुणबा तो, राष्ट्रभक्त "बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर मुर्दाबाद" के नारे दे रहा है ! भारत की अखंड अस्मिता "भारतीय संविधान" की होली करते भी, वे दिखाई देते है. फिर भी इस भारतीय शासन व्यवस्था और पोलिस वर्ग का मौन रहना, यह तो भारत के अगली गुलामी का संदेश दे रहा है. *"मोहनदास गांधी हत्याकांड"* को वह सवर्ण जाती वर्ग भुलते नजर आता है. जब उन की बहु - बेटीयाँ अपनी इज्जत बचाने की भीख माँगते थे. वही पुरुष वर्ग अपनी जान बचाने के लिए, जहाँ वहाँ छुपते फिरते नज़र आते थे. आज वह उच्च जातीय देशद्रोही धर्मांधी कुणबा, भारत के उनके पुरखों के देशद्रोही - गद्दारी की मिसाल बनते नजर आते है. अगर यही हालत रही तो, शायद भारत मे *"अंतर्गत रक्तक्रांती"* को बुलावा जादा दुर नही..! जरा सोचों, अंतर्गत और बाह्यगत इन द्वंद्व वार में स्वतंत्र भारत, क्या जिवित रह पायेगा भी नही ? यह प्रश्न है, सभी भारतीय देशभक्तों के लिए...!!!
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* *डॉ. मिलिन्द जीवने 'शाक्य', नागपुर*
(भारत राष्ट्रवाद समर्थक)
* राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल
* अध्यक्ष, डॉ. आंबेडकर आंतरराष्ट्रिय बुध्दीस्ट मिशन
* अध्यक्ष, जागतिक बौद्ध परिषद २००६, नागपुर
* मो.न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२
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