Thursday, 20 November 2025

 🎓 *सर्वोच्च न्यायालय के अनुसूचित जाती / जनजाती उपवर्गिकरण करने से न्या धनंजय चंद्रचूड अध्यक्षता वाली सात बेंच का फैसला जाती जातीं में वैमनस्य तथा देश में अशांती - अधोगती का कारक होगा !*

        *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य',* नागपुर १७

राष्ट्रिय अध्यक्ष, सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन सेल 

एक्स व्हिजिटिंग प्रोफेसर, डॉ बी आर आंबेडकर सामाजिक विज्ञान विद्यापीठ महु मप्र 

एक्स मेडिकल ऑफिसर एवं हाऊस सर्जन 

आंतरराष्ट्रीय परिषद संशोधन पेपर के परिक्षक 

बुध्द आंबेडकरी लेखक, कवि, चिंतक, समिक्षक

मो. न. ९३७०९८४१३८, ९२२५२२६९२२


              मैं पिछले आठ दिनों से, मा. सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन प्रमुख न्यायाधीश *मा. धनंजय चंद्रचूड* इनके अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की पीठ जिसमे - *न्या. भुषण रा. गवई / न्या‌ विक्रमनाथ / न्या. बेला त्रिवेदी / न्या. मनोज मिश्रा / न्या. पंकज मित्तल / न्या. एस सी वर्मा* इनके १ अगस्त २०२४ का *"६:१ अनुपात"* का निर्णय *"पंजाब सरकार विरुध्द दविंदर सिंह"* केस संदर्भ में अध्ययन कर रहा था. और *न्या. बेला त्रिवेदी* इनकी संविधान निष्ठा भी देख रहा था. उस विषय पर मेरा लेख मिडिया में है. साथ ही *इंदिरा सहानी विरुध्द भारत सरकार* इस केस के *"ओबीसी वर्ग के क्रिमीलेयर / आरक्षण मर्यादा ५०% तक ही सिमित होना"* यह १६ नवंबर १९९२ को *"६:३ अनुपात"* में निर्णय देनेवाले नव बेंच न्यायाधीश पिठ -  जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश *एम. एच. केनिया* तथा *न्या. एस. एम. अहमदी / न्या. जे. एस. वेंकटचलैया / न्या. बी. पी. जीवन रेड्डी / न्या. पांडियन / न्या. पी. बी. सावंत / न्या. टी. के. थोमेन / न्या. कुलदिप सिंह / न्या. आर. एम. सहाय* इनकी वैचारिक बुध्दी का भी आकलन कर रहा था. वही *"अनुसूचित जाती / जमाती वर्ग एक समुह है. उनका वर्गिकरण नहीं किया जा सकता"* यह निर्णय ५ नवंबर २००४ को *इ. व्ही. चिनैय्या विरुध्द आंध्र प्रदेश सरकार"* इस केस में, *"४:१ अनुपात"* में देनेवाले न्यायाधीश जिसमे *न्या. एन संतोष हेगडे / न्या. एस. एन. वारियावा / न्या. बी पी सिंह / न्या. एम के सेमा / न्या. एस व्ही सिंह* इस अपिल को भी देख रहा था. उसी बीच भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सरन्यायाधीश *भुषण गवई* इनका आंध्र प्रदेश स्थित *अमरावती* को सत्कार का बयाण - *"अनुसूचित जाती वर्ग को आरक्षण क्रिमिलेयर"* मेरे पढने में आया. उसी बिच मेरे भुतपुर्व न्यायाधीश मित्र *अनिल वैद्य* इसका भी मुझे मेसेज मिला. वैसे मेरे कॉलेज जीवन के कुछ मित्र *"जिला न्यायाधीश / आय.ए.एस."* आदी बडे हुद्दे पर रह चुके हैं. उनसे भी कभी कभी मेरी चर्चा होती रहती है. यह विषय बहुत गंभीर होने से / हमारे जीवन से जुडा होने से इस पर अध्ययन करना मुझे आवश्यक लगा है.

         तत्कालीन सरन्यायाधीश *धनंजय चंद्रचूड* अध्यक्षतावाली नवं न्यायाधीश की खंडपीठ में, रिपब्लिकन नेता स्मृतीशेष *रा. सु. गवई* साहाब इनके सुपुत्र / आज के सरन्यायाधीश *भुषण गवई* भी भाग थे. उन्होने भी अपने निर्णय में *"अनुसूचित जाती वर्ग में उपवर्गिकरण को / क्रिमीलेयर को उचित मानकर / संविधान अनुच्छेद ३४१ का उल्लंघन नहीं है"* यह कहते हुये, इसके पुर्व के *इ व्ही चिनैय्या विरुध्द आंध्र प्रदेश सरकार "* इस केस को पलट देने से, इस से *"बडी शोकांतिका"* कौन सी हो नहीं सकती ? चिनैया केस में *"समाजशास्त्रीय"* आधार पर *"अनुसूचित जाती / जमाती वर्ग एक समुह माना है. उनका वर्गिकरण नहीं किया जा सकता"* यह दिया गया निर्णय बिलकुल सही था. अंग्रेज समय में सन १९१६ को *"अस्पृश्य वर्ग"* को, हिंदु धर्म के *"ब्राह्मण वर्णव्यवस्था"* में, हिंदु धर्म का अंग ना मानने से, इंग्रजों नें *"जाती / जनजाती वर्ग"* की दो *अनुसूचि (Schedule)* बनायी थी. सन १९३१ में जातीगत जनगणना का आधार (Population Census) भी वही रहा था. और *"सन २०२४ निर्णय"* में उस प्रमाण को ही अस्वीकार किया जाता हो तो, *धनंजय चंद्रचूड / भुषण गवई* समवेत न छह: न्यायाधीशों के बुध्दी पर दया आती है. सही हिरो तो *न्या. बेला त्रिवेदी* हो गयी है, जो उन आठ न्यायाधीशों के विपरीत अपना निर्णय दिया है. सरन्यायाधीश *भुषण गवई* ये आंध्र प्रदेश के अमरावती स्वागत बयाण में, अपने उस *"फैसेली की वकालत"* कर रहे है. अनुसूचित जाती वर्ग को क्रिमीलेयर लागु हो / *"खेतीहर मजुर - अधिकारी वर्ग के बच्चे"* का उदाहरण पर हम आगे चर्चा करेंगे. और वह बयाण *"न्यायाधीश वर्ग के कोड ऑफ कंडक्ट का उल्लंघन"* है या नहीं ? यह अलग विषय है.

             भारतीय संविधान द्वारा *"आरक्षण"* यह सामाजिक स्थिती आधार पर दिया गया, ना कि *"आर्थिक आधार"* पर. पंरंतु भाजपा - भारत सरकार काल में नवंबर २०१९ में *"१०३ संविधान संशोधन अधिनियम २०१९"* अंतर्गत  *"१०% आर्थिक आरक्षण"* (EWS) लागु किया गया. बाद में उसे सर्वोच्च न्यायालय मे चुनौती दी गयी. और सर्वोच्च न्यायालय के सरन्यायाधीश *यु . यु.  ललीत* इनकी अध्यक्षतावाली पाच न्यायाधीशों के पीठ में - *न्या. दिनेश माहेश्वरी / न्या. रविंद्र भट / न्या. बेला त्रिवेदी / न्या. जे बी पारदीवाला* इन्होने ३:२ अनुपात में इस *"आर्थिक आरक्षण"* को वैध माना. उस समय *न्या. बेला त्रिवेदी* ये आर्थिक आरक्षण की पक्षाधर थी. जब की वह आर्थिक आधार पर आरक्षण पुर्णतः *"संविधान विरोधी"* रहा था. पंरतु सर्वोच्च न्यायालय ने उसे हरी झंडी दे दी. तब *"इंदिरा सहानी विरुध्द भारत सरकार"* इस नवं बेंच का *"आरक्षण ५०% उपर ना"* हो, वह दिखाई नहीं दिया. कहते हैं ना - *"हमाम में सब नंगे होते है."*

             अनुसूचित जाती / जनजाती वर्ग में *"उपवर्गिकरण"* के होनेवाले भावी दुष्परिणामों पर, *"मेरे स्वयं"* के एक उदाहरण से दे रहा हुं. नागपुर विद्यापीठ के *"प्राध्यापक"* नियुक्ती के समय में, मेरे पास *"पोष्ट ग्रजुएट डिग्री / नेट क्लालिफिकेशन"* होने पर भी, अनुसूचित जाती वर्ग सीट में सिलेक्शन समिती ने, *"Not Found Suitable"* कहकर, मेरा सिलेक्शन नहीं किया था. अगर *"तिन बार अनुसूचित जाती वर्ग"* में सुटेबल उमेदवार ना मिलने से, वह सीट *"ओपन कैटेगिरी"* में कन्व्हर्ट हो जाती है. इस प्रकार *"जाती उपवर्गिकरण"* करने से *"Not Found Suitable"* यह शेरा लिखकर *"आरक्षण सीट यह ओपन वर्ग"* में परिवर्तीत जाने की संभावना को, हम इंकार कैसे किया जा सकता है ? फिर लगाओ और *"कोर्ट के चक्कर"* !!! क्यौं कि, जब *"एकसंघ अनुसूचित जाती वर्ग"* की यह समस्या हो तो, *"उपवर्गिकरण"* करने पर की स्थिती को, समजा जा सकता है ? दुसरा विषय यह की उपवर्गिकरण में, *"किसी वर्ग जाती को १००%  आरक्षण ना"* हो ! यह भी संदर्भ है. तिसरा विषय यही भी समझ लो. *"अनुसूचित जाती क्रिमिलेयर के होने वाले अन्याय का !"* अगर अनुसूचित जाती वर्ग में *"क्रिमीलेयर"* लागु हुआ तो, क्या *"सिलेक्शन समिती"* यह अनुसूचित वर्ग को, *"ओपन वर्ग"* से सिलेक्ट करेगी या नही ? वही हाल *"अनुसूचित जाती / जमाती वर्ग के प्रमोशन"* का भी होगा. अपने देश में *"जाती का राक्षस"* मुहं फैलाये खडा हुआ है. इसलिए *बाबासाहेब डॉ आंबेडकर साहेब* ने संविधान की *"अनुच्छेद ३४० / ३४१ / ३४२ /२४३ (T) मे आर्थिक स्थिती"* को सम्मिलीत नहीं किया. हमे *"सामाजिक स्थिती "* आधार पर आरक्षण व्यवस्था की गयी है. और हमारे *"विद्वान (?) न्यायाधीश"* ये क्रिमीलेयर की बात कर रहे है. अर्थात *"आर्थिक आधार !"* अत: दिया गया *"सर्वोच्च न्यायालय अनुच्छेद ३४१ आधार निर्णय पुर्णतः सामाजिक स्थिती विरोधी"* है. और *"भारतीय संविधान को वह बायपास"* कर रहा है. भारतीय *"ब्राह्मण्य न्यायव्यवस्था"* में पुरानी पेशवाई लादने हेतु *"क्रिमिलेयर का भुत"* लादा जा रहा है, यह समजना बहुत जरुरी है. रही बात *"खेतीहर मजुर तथा मागासवर्ग अधिकारी वर्ग के बच्चे"* का संघर्ष, यह अपवाद स्वरुप होता है. हमारे अपने समाज में बहुत सारे *"खेतीहार मजुर वर्ग के बच्चे"* अपनी योग्यता के आधार पर, *"अधिकारी वर्ग"* के बच्चे को भी मात दे रहे है. अत: सर्वोच्च न्यायालय इस निर्णय से, देश में अशांती होगी. अगर समाज में शांती ही ना हो तो, भारत की अधोगती होगी.

             सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरन्यायाधीश *रंजन गोगोई* इनके अध्यक्षतेवाले पीठ जिसमे - *न्या. शरद बोबडे / न्या. अशोक भुषण / न्या. धनंजय चंद्रचूड / न्या. एस अब्दुल नजीर* मान्यवर द्वारा *"रामजन्मभूमी प्रकरण"* निर्णय ९ नवंबर २०१९ को पाच न्यायाधीशों के पीठ ने सहमती से दिया था. सदर निर्णय में हमें कोई *"प्रायमा फेसी"* दिखाई नही देती है. वह निर्णय *"भावना के आधार"* पर दिया गया, भारत के इतिहास का सबसे नालायक निर्णय था. मुझे लगता है कि, उन ना-लायको (Not Qualified) सर्वोच्च न्यायालय के बदले *"किसी हिंदु मंदिर के प्रमुख पुजारी"* पद पर नियुक्ती बहुत जरुरी थी. बस, वही उन न्यायाधीशों की औकात रही है. प्राचीन भारत का इतिहास यह *"बुध्द संस्कृती का इतिहास"* रहा है. और *"अयोध्या"* यह बुध्द धर्मीय सम्राट की राजधानी थी. उसका मुलनाम *"साकेत"* था. इस विषय पर फिर कभी मैं चर्चा करूंगा. परंतु सदर निर्णय देते समय *"बुध्द वर्ग"* द्वारा दायर याचिका पर क्या हुआ ? यह प्रश्न है. अगर ब्राह्मण न्यायाधीश *"रामजन्मभूमी प्रकरण"* पर निर्णय दे सकते हैं तो, सरन्यायाधीश *भुषण गवई* इन्होने भी अपने कार्यकाल में *"बुद्धगया महाविहार याचिका"* पर निर्णय क्यौं नहीं दिया ? यह दाग सरन्यायाधीश भुषण गवई इन पर हमेशा के लिये लगा रहेगा. दुसरा दाग भी *"अनुसूचित जाती / जमाती उपवर्गिकरण तथा क्रिमिलेयर"* का रहेगा. वह इतिहास कभी मिटेगा नहीं.

            भारत की *"सर्वोच्च न्यायालय"* यह, सर्वोच्च नहीं *"सवर्ण न्यायालय"* दिखाई देती है. अगर *"कोलोजीयम सिस्टम"* न्यायालय में ना होता तो, न्यायालय में बैठे हुये न्यायाधीश *"चपराशी वर्ग ४ की स्पर्धा परीक्षा"* भी, वे पास किये होते क्या ? यह एक संशोधन का विषय है. मैने न्यायाधीशों के ऐसे भी निर्णय देखे है, वह *"न्यायालय की तोहिम"* कही जा सकती है. *"मेरे अपने स्वयं"* के ही केस का मैं उदाहरण देता हुं. माजी सनदी अधिकारी - *इ. झेड. खोब्रागडे* इस ना-लायक ने, *"संविधान साहित्य संमेलन"* का आयोजन किया था. मेरी संघटन *"सिव्हिल राईट्स प्रोटेक्शन"* द्वारा उस सम्मेलन का विरोध किया गया था. *"भारतीय संविधान यह साहित्य नहीं है. वह "कानुन की किताब" (Legal Book) नहीं है. वह "कानुनी दस्तावेज" (Legal Documents) है."* खोब्रागडे के दिमाग का वह रहमान किडा अलग कुछ करने जा रहा था. मैने स्वयं *इ. झेड. खोब्रागडे* और उसकी पत्नी रेखा / *"संविधान फाऊंडेशन"* को भी कानुनी नोटीस भेजा. जब खोब्रागडे यह बाज नहीं आया तो, नागपुर उच्च न्यायालय में *याचिका क्र. ३९४०/२०१९* दायर की थी. सदर मेरी याचिका *रवि देशपांडे / विनय जोशी* इनके बेंच के सामने लगी थी. मेरी ओर से मा सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ वकिल *एड. चेतन बैरवा* /मेरे मित्र *एड. बी. बी. रायपुरे* पैरवी कर रहे थे. मेरी याचिका में न्यायाधीश द्वय ने यह कह कर **खारीज"* की, वह निर्णय देखे - *"The ground of challenge is that the literature can be obsence also. And therefore, there should be prevention in holding such a program is purely hypothetical and imaginary. Apart from that, we don't find any fundamental rights in favour of the petitioner or any fundamental duty cast which can be enforced by way of filling writ petition under article 226 of the constitution of India. Writ petition is therefore dismissed. No cost "* क्या मैने मेरे मुलभूत अधिकारों के हनन के याचिका दायर की थी ? *"भारत के संविधान का सन्मान करना हम सभी का दायित्व है."* इसलिए वह याचिका दायर की थी. साहित्य स्वीकार ना हो वह जलाया भी जा सकता है. जैसे बाबासाहेब डॉ आंबेडकर साहेब ने *"मनुस्मृती का दहन"* किया था. खोब्रागडे के इस नालायकी के कारण *"नयी दिल्ली के जंतर मंतर पर भारतीय संविधान को जलाया"* गया था.अत: दोषी तो इ झेड खोब्रागडे भी है, वह दोनो न्यायाधीश भी है. इस तरह के न्यायाधीश हमारे न्याय व्यवस्था में बैठे है‌. किसी न्यायाधीश के बंगले पर *"करोडो की करंसी"* मिलती है / कोई न्यायाधीश *"धर्मांधवाद की बात"* करता है / किसी न्यायाधीश का *"नैतिक चरित्र ही नहीं"* होता / कोई न्यायाधीश  *"मनु का पुतला बिठाने की अनुमती"* दे जाता है, और क्या क्या कहे ? इसलिए न्याय व्यवस्था में *"नियुक्त न्यायाधीश"* वह मेरीट धारक हो. *"कोलोजीयम सिस्टम"* से रिकमंडेड *बिन-अकल न्यायाधीश"* ना हो. ना ही *नरेंद्र मोदी* सरकार द्वारा संविधान *अनुच्छेद १२४ (A)* अंतर्गत *"National Judicial Appointments Commission"* (NJAC) वाले नियुक्त न्यायाधीश हो. क्यौ कि, राजकिय अधिपत्य न्यायव्यवस्था पर निश्चित आया होता. *"मा सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इस कानुन को निरस्त"* किया गया.  अत: *"न्यायाधीश नियुक्ती यह केंद्रीय लोकसेवा आयोग (UPSC) बेस पर स्पर्धात्मक परिक्षा से पास हुये"* न्यायाधीश हो. इसलिए ही *"Union Public Judicial Commission"* (UPJC) की स्थापना कर, स्पर्धा परीक्षा से पास हुये *"मेरीट न्यायाधीश"* होना बहुत जरुरी है. ता कि हमारे *"भारत की न्यायव्यवस्था"* का एक प्रभाव हो. उन पर किसी भी व्यवस्था का दबाव ना हो. वह स्वतंत्र निकाय हो. सर्वोच्च न्यायालय यह *"भारतीय संविधान का कस्टोडियन"* है. वह  *"वॉच डॉग"* है. ना कि हमारी *"संसद"* / ना ही हमारे देश के *"राष्ट्रपती"* / ना ही *"प्रधानमंत्री."* अत: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा *"भारतीय संविधान की गरीमा"* रखना यह बहुत जरुरी है.


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▪️ *डॉ मिलिन्द जीवने 'शाक्य'*

      नागपुर दिनांक २० नवंबर २०२५

(भारतीय संविधान द्वारा आरक्षण यह *"सामाजिक स्थिती"* आधार पर दिया गया है. ब्राह्मण्य व्यवस्था में *"आर्थिक आधार"* पर आरक्षण लेकरं संविधान की तोहीम की है. हमारे को क्रिमीलेयर तथा उपवर्गिकरण में बाटा जाता है. जातीगत जनगणना में आरक्षण कोटा बघ जाऐगा. हमे एकसंघ होना है. इसलिए इस आर्टिकल को अन्य मित्रों को - ग्रुप को फार वर्ग कर, लोगों को जागृत करे.)

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